लद्दाख की गलवन घाटी में भारत-चीन के सैनिकों के बीच हिंसक झड़प में कर्नल और दो भारतीय जवानों का बलिदान व्यर्थ नहीं जाना चाहिए। हालांकि इस झड़प में कुछ चीनी सैनिकों के भी मारे जाने की खबर है, लेकिन इससे चीन का अपराध कम नहीं हो जाता। उसने एक बार फिर जिस तरह हमारी पीठ पर छुरा घोंपने का काम किया उसके बाद इस नतीजे पर पहुंचने के अलावा और कोई उपाय नहीं कि वह हमारे सबसे बड़े और साथ ही शातिर शत्रु के रूप में सामने आ गया है। यह धूर्तता की पराकाष्ठा है कि वह भारतीय क्षेत्र में अतिक्रमण भी करता है और फिर भारत को शांति बनाए रखने का उपदेश देते हुए पीछे हटने से इन्कार भी करता है। भारत की सीमाओं पर अपने विस्तारवादी रवैये का निर्लज्ज प्रदर्शन करने के पीछे उसका इरादा कुछ भी हो, अब उस पर रत्ती भर भी विश्वास नहीं किया जाना चाहिए।

गलवन घाटी की घटना यही बता रही है कि पानी सिर के ऊपर बहने लगा है। मित्रता की आड़ में शत्रुतापूर्ण रवैये का परिचय देना और भारत को नीचा दिखाना चीन की आदत बन गई है। हालांकि उसकी इस गंदी आदत के बावजूद भारतीय नेतृत्व ने सदैव संयम का परिचय दिया है, लेकिन अब जब वह इस संयम को कमजोरी के तौर पर देखने लगा है तब फिर भारत को उसका मुगालता दूर करने के लिए हर मोर्चे पर सक्रिय होना होगा। आखिर बात देश के मान-सम्मान की है।

चीन को यह पता चलना ही चाहिए कि वह दादागीरी के बल पर भारत से अपने रिश्ते कायम नहीं कर सकता। आवश्यक केवल यह नहीं है कि आत्मनिर्भर भारत अभियान के तहत चीनी उत्पादों का आयात सीमित किया जाए, बल्कि यह भी है कि भारत अपनी तिब्बत, ताईवान और हांगकांग नीति नए सिरे से तय करे। इसी तरह भारत को अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, जापान के साथ अपने रणनीतिक गठजोड़ को धार देनी चाहिए ताकि हिंद महासागर में चीन के विस्तारवादी इरादों को नाकाम किया जा सके।

कोरोना कहर के कारण चीन के खिलाफ वैश्विक स्तर पर जो माहौल बना है उसमें भी भारत को अपनी भागीदारी बढ़ानी चाहिए। आखिर जब वह भारतीय हितों की कहीं कोई परवाह नहीं कर रहा तो फिर भारत उसके हितों की चिंता क्यों करे? तानाशाह चीनी नेतृत्व को यह संदेश देने की सख्त जरूरत है कि ताली एक हाथ से नहीं बज सकती। हुआवे सरीखी जिन चीनी कंपनियों को दुनिया के अन्य देश दरवाजा दिखा रहे हैं उन्हेंं भारत में भी पांव रखने की जगह नहीं मिलनी चाहिए। भारत को शंघाई सहयोग परिषद जैसे मंचों से बाहर निकलने की भी तैयारी करनी चाहिए।