एशिया-प्रशांत क्षेत्र के कारोबारी समझौते रीजनल कांप्रेहेंसिव इकोनॉमिक पार्टनरशिप यानी आरसेप से बाहर रहने के अपने फैसले पर अडिग रहकर भारत ने यही स्पष्ट किया कि वह अपने आर्थिक हितों से समझौता करने के लिए तैयार नहीं। नि:संदेह चीन, दक्षिण कोरिया, जापान, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड समेत आसियान के दस सदस्य देशों वाला आरसेप सबसे बड़ा कारोबारी समझौता है, लेकिन भारत इसकी अनदेखी नहीं कर सकता कि इसमें चीन का दबदबा है और अपने विस्तारवादी रवैये के कारण वह इस क्षेत्र के लिए ही नहीं, विश्व व्यवस्था के लिए भी खतरा बन गया है। उसके इसी रवैये को रेखांकित करते हुए विगत दिवस लोंगेवाला में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने साफ तौर पर कहा था कि विस्तारवाद एक मानसिक विकृति है।

एक ऐसे समय जब चीन अपनी विस्तारवादी प्रवृत्ति का परिचय हर क्षेत्र में दे रहा है, तब उसके प्रभुत्व वाले किसी कारोबारी समझौते में भागीदार बनना भारत के हित में नहीं हो सकता-इसलिए और भी नहीं कि एक तो इसका अंदेशा है कि चीन भारत को अपने उत्पादों से पाट सकता है और दूसरे, उसके साथ व्यापार घाटा अभी भी बहुत अधिक है। इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि आर्थिक-व्यापारिक मामलों में चीन के मनमाने रवैये के कारण ही अमेरिका ने भी आरसेप से बाहर रहने का फैसला किया है।

चूंकि आरसेप समझौता 2022 में प्रभावी होना है और भारत को यह सुविधा हासिल है कि वह जब चाहे उसमें शामिल हो सकता है, इसलिए उसके पास अभी अवसर है, लेकिन इस मौके को भुनाने का फैसला तभी किया जाना चाहिए कि जब घरेलू आर्थिक-व्यापारिक हितों पर कोई विपरीत असर न पड़े। यह कहना कठिन है कि भविष्य में क्या सूरत बनेगी, लेकिन इसकी आवश्यकता तो बढ़ ही गई है कि भारत आरसेप और खासकर आसियान समूह के देशों के साथ द्विपक्षीय व्यापार समझौतों को अपने हितों के अनुरूप आकार देने के लिए सक्रिय हो। यदि इन देशों के साथ द्विपक्षीय व्यापार समझौतों को सही स्वरूप दिया जा सके तो ऐसी भी स्थिति बन सकती है कि भारत को आरसेप में शामिल होने की जरूरत ही न पड़े।

जो भी हो, चीन जब तक अपने विस्तारवादी रवैये में बदलाव नहीं लाता, तब तक उसकी भागीदारी वाले संगठनों एवं समझौतों से भारत को दूरी बनाने पर ध्यान देना चाहिए। कम से कम उन संगठनों, समझौतों को लेकर तो सतर्क रहना ही चाहिए, जिनमें चीन का दबदबा है। यह सही समय है, जब भारत इसका आकलन करे कि ब्रिक्स और एससीओ जैसे संगठन उसके लिए कितने हितकारी हैं? यह भी समय की मांग है कि मेक इन इंडिया एवं आत्मनिर्भर भारत जैसे अभियानों को और प्राथमिकता प्रदान की जाए।