यह ठीक नहीं कि अमेरिका और ईरान के बीच बढ़ता टकराव पश्चिम एशिया के साथ-साथ पूरी दुनिया के लिए संकट का कारण बनता जा रहा है। इस संकट को टालने की हरसंभव कोशिश की जानी चाहिए, लेकिन ऐसी कोई कोशिश तभी रंग लाएगी जब दोनों पक्ष अर्थात अमेरिका और ईरान अपने-अपने रवैये में बदलाव लाने के लिए तैयार होंगे। विडंबना यह है कि फिलहाल दोनों ही देश टकराव के रास्ते पर चलते दिख रहे हैं। इसका प्रमाण यह है कि अमेरिका ने अपने एक ड्रोन विमान को मार गिराए जाने के बाद ईरान पर और कड़े प्रतिबंध लगाने की घोषणा के साथ ही उस पर साइबर हमले करने भी शुरू कर दिए हैं।

अमेरिका के आक्रामक रुख के जवाब में ईरान भी आक्रामकता दिखाकर समस्या को उलझाने में लगा हुआ है। उसने अमेरिका की ओर से दी जा रही चेतावनियों के जवाब में यह कहा है कि वह अपने परमाणु कार्यक्रम को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तय सीमा से आगे ले जाएगा। इस तरह की घोषणाएं तनाव को बढ़ाने वाली हैं और इससे किसी का भी और खास तौर पर ईरान का हित तो बिल्कुल भी नहीं होने वाला। समझना कठिन है कि ईरान अपनी कमजोर आर्थिक स्थिति की अनदेखी कर टकराव मोल लेने पर आमादा क्यों दिख रहा है? यह सही है कि ट्रंप प्रशासन ने 2015 में ईरान के साथ हुए परमाणु समझौते से अमेरिका को अलग करके अच्छा नहीं किया, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि ईरानी सत्ता परमाणु हथियार बनाने के लिए बेचैन नजर आने लगती।

अमेरिकी राष्ट्रपति का यह कहना सही है कि ईरान संपन्न राष्ट्र बनना चाहे तो हर्ज नहीं, लेकिन यदि वह परमाणु हथियारों से लैस होना चाहेगा तो मुश्किल होगी। आज इस्लामी जगत की जैसी स्थिति है और ईरान जिस प्रकार गैर जिम्मेदाराना व्यवहार करने के साथ आतंकी तत्वों की खुली-छिपी मदद करता रहा है उसे देखते हुए विश्व समुदाय यह बिल्कुल भी पसंद नहीं करेगा कि वह परमाणु हथियारों से लैस हो जाए। नि:संदेह इसी के साथ विश्व समुदाय यह भी नहीं चाहेगा कि अमेरिका ईरान के प्रति अपनी आक्रामकता बढ़ाकर पश्चिम एशिया के हालात बिगाड़ने का काम करें।

वास्तव में खुद अमेरिका को इसका आभास होना चाहिए कि अतीत में उसने गलत कदम उठाकर पश्चिम एशिया को किस तरह अस्थिरता और अराजकता में झोंका है। अमेरिका को इराक वाली गलती ईरान में नहीं करनी चाहिए। उसे यह भी पता होना चाहिए कि आज वह पहले की तरह ताकतवर महाशक्ति नहीं रह गया है। इससे इन्कार नहीं कि कुछ देश ईरान को अमेरिका के खिलाफ उकसाने में लगे हुए हैं, लेकिन समय की मांग यही है कि उन देशों की आवाज सुनी जाए जिनका जोर टकराव को टालने और बातचीत से समस्याओं का समाधान करने पर है। चूंकि ईरान में भारत के हित निहित हैं इसलिए भारतीय नेतृत्व के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि वह इस बात को प्रबलता से रेखांकित करे कि पश्चिम एशिया में युद्ध के हालात बनने से विश्व शांति खतरे में पड़ेगी। सच तो यह है कि अमेरिका और ईरान में टकराव से विश्व अर्थव्यवस्था के समक्ष भी नए संकट पैदा होंगे।

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