यह अच्छा हुआ कि भारतीय विदेश मंत्रालय ने पेंटागन यानी अमेरिकी रक्षा विभाग की ओर से किए गए इस दावे पर आधिकारिक रूप से अपना स्पष्टीकरण जारी कर दिया कि अरुणाचल प्रदेश में सीमा के निकट चीन ने एक गांव बसा लिया है। विदेश मंत्रालय के अनुसार चीन की ओर से यह गांव उस क्षेत्र में बसाया गया है, जो 1959 से ही उसके कब्जे में है, लेकिन उचित यह होता कि यह स्पष्टीकरण समय रहते जारी किया जाता, क्योंकि पेंटागन की रपट के आधार पर न केवल भारतीय मीडिया के एक हिस्से ने यह आभास कराया कि चीन ने नए सिरे से अरुणाचल में घुसपैठ कर छेड़छाड़ की है, बल्कि कांग्रेस समेत कई राजनीतिक दलों ने भी केंद्र सरकार को कठघरे में खड़ा कर दिया।

आखिर विदेश या फिर रक्षा मंत्रालय की ओर से पहले दिन ही यह स्पष्ट क्यों नहीं किया जा सका कि पेंटागन के दावे की असलियत क्या है? सवाल यह भी है कि विदेश मंत्रालय का स्पष्टीकरण सामने आने के पहले ही पेंटागन के दावे को लेकर विरोधाभासी स्वर सामने क्यों आए? केंद्रीय सत्ता को यह समझना होगा कि जब ऐसा होता है तो उन तत्वों को अवसर मिलता है, जो चीन के साथ तनाव को लेकर भ्रम पैदा करना चाहते हैं या फिर सरकार को नीचा दिखाना चाहते हैं।

एक ऐसे समय जब सूचनाओं का इस्तेमाल हथियार के तौर पर हो रहा हो और चीनी सत्ता भारत के खिलाफ दुष्प्रचार का सहारा लेने में जुटी हुई हो, तब सरकार को कहीं अधिक सजग एवं तत्पर रहना चाहिए। यह ठीक है कि भारतीय विदेश मंत्रालय ने एक बार फिर यह रेखांकित किया कि भारत न तो अपने क्षेत्र में चीन के किसी तरह के अवैध कब्जे को स्वीकार करता है और न ही उसके अनुचित दावों को मंजूर करता है, लेकिन इतना ही पर्याप्त नहीं है।

जब यह स्पष्ट है कि चीन के इरादे नेक नहीं हैं और वह भारत से लगी सीमा पर तरह-तरह के निर्माण कार्य करने के साथ अपने सैन्य ढांचे को मजबूत करने में जुटा है, तब फिर भारत को भी ऐसा ही करना होगा। नि:संदेह बीते कुछ समय में भारत चीन से लगती सीमा पर सैन्य चौकसी बढ़ाने के साथ सड़कों, पुलों आदि का निर्माण करने में लगा हुआ है, लेकिन इस काम को और तेज करने की आवश्यकता है। इसी के साथ उसके प्रति आक्रामकता बढ़ाने की भी जरूरत है। चीन के कपटी रवैये को देखते हुए भारत को उसकी कमजोर नसों को दबाने के लिए भी आगे आना होगा। बात केवल तिब्बत और ताइवान से जुड़े सवालों पर मुखर होने की नहीं, बल्कि चीन के साथ व्यापार घाटे को कम करने की भी है।