कृषि कानून विरोधी आंदोलन के सौ दिन बाद भी यदि नतीजा ढाक के तीन पात वाला है तो किसान नेताओं के अड़ियलपन के कारण। इन नेताओं की ओर से अपने आंदोलन की ओर ध्यान आकर्षित करने के लिए चक्का जाम करने जैसे जो आयोजन किए जा रहे हैं, उनसे इसलिए कुछ नहीं हासिल होने वाला, क्योंकि उनका मकसद आम जनता को तंग करना और सरकार पर बेजा दबाव बनाना है। किसान नेताओं के रवैये से यह भी साफ है कि उनकी दिलचस्पी समस्या का समाधान खोजने में नहीं, बल्कि सरकार को नीचा दिखाने में है। इसी कारण वे इस मांग पर अड़े हुए हैं कि तीनों कृषि कानून वापस लिए जाएं। सरकार धरना-प्रदर्शन कर रहे किसान संगठनों से लगातार यह कह रही है कि वे इन कानूनों में खामियां बताएं तो वह उन्हें दूर करे, लेकिन उनकी यही रट है कि तीनों कानून खत्म किए जाएं। किसान नेता ऐसे व्यवहार कर रहे हैं, जैसे संसद और सुप्रीम कोर्ट वाले अधिकार उन्हें हासिल हो गए हैं। आखिर तीनों कृषि कानूनों की जगह कोई तो कानून बनेंगे ही। क्या यह उचित नहीं कि कानून रद करने की जिद पकड़ने के बजाय मौजूदा कानूनों में संशोधन-परिवर्तन की दिशा में आगे बढ़ा जाए?

किसान नेता जिस तरह सरकार की पेशकश के जवाब में कोई पहल नहीं कर रहे, उससे यही पता चलता है कि उनका आंदोलन हठधíमता का पर्याय बन गया है। अब तो यह भी स्पष्ट है कि इस आंदोलन के जरिये राजनीतिक हित साधने की कोशिश की जा रही है। चुनाव वाले राज्यों में भाजपा को हराने की तैयारी तो यही बताती है कि किसान नेता विपक्षी दलों के हाथों में खेल रहे हैं। इसकी भी अनदेखी नहीं की जानी चाहिए कि किसान नेता एक ओर अपने आंदोलन को शांतिपूर्ण बता रहे हैं और दूसरी ओर 40 लाख ट्रैक्टर दिल्ली लाकर इंडिया गेट के पास की जमीन जोतने की धमकी भी दे रहे हैं। क्या इस तरह की हरकतें किसानों को बदनाम करने का काम नहीं करेंगी? कोई भी यह नहीं भूल सकता कि गणतंत्र दिवस पर ट्रैक्टर रैली के नाम पर किस तरह देश को शर्मसार किया गया। यदि किसान नेताओं में देश को शìमदा करने वाली घटनाओं को लेकर तनिक भी अफसोस होता तो वे तत्काल अपना आंदोलन वापस लेकर बातचीत की मेज पर पहुंचते। किसान नेता भले ही खुद को किसानों का हितैषी बताएं, लेकिन वे उन्हें बरगलाकर उनका वक्त ही बर्बाद करने में लगे हुए हैं। वैसे यह समझना भी कठिन है कि आखिर हमारे देश का किसान इतना फुरसत वाला कब हो गया कि वह तीन माह से अधिक समय से धरने पर बैठा रहे?