यह अच्छा हुआ कि दिल्ली और आसपास रेल पटरियों के किनारे की झुग्गियों को हटाने के सुप्रीम कोर्ट के निर्णय पर केंद्र सरकार ने यह कहा कि ऐसा कुछ करने के पहले रेलवे और दिल्ली सरकार से बात की जाएगी। इसका अर्थ है कि इन झुग्गियों को तत्काल प्रभाव से हटाने का काम नहीं होगा। यदि सुप्रीम कोर्ट के निर्णय का अनुपालन किया जाता तो करीब 48 हजार झुग्गियों में रहने वाले दो लाख से अधिक लोग सड़क पर आ जाते। इससे रेलवे की जमीन तो अवैध कब्जे से मुक्त हो जाती, लेकिन कोरोना संकट के बीच एक मानवीय त्रासदी सिर उठा लेती। फिलहाल यह कहना कठिन है कि केंद्र सरकार और दिल्ली सरकार इन झुग्गियों को हटाने के मामले में किस निष्कर्ष पर पहुंचेंगी, लेकिन उन्हें यह ध्यान रखना चाहिए कि रेलवे अथवा अन्य सरकारी विभागों पर बसी झुग्गियों को हटाना समस्या का फौरी समाधान ही है। यदि ऐसी झुग्गी बस्तियों में रहने वालों के पुनर्वास की उचित व्यवस्था नहीं की जाएगी तो इस तरह की बस्तियों से कभी छुटकारा मिलने वाला नहीं है। यह बात जितनी दिल्ली-एनसीआर पर लागू होती है उतनी ही शेष देश पर भी।

देश के लगभग सभी शहरों में झुग्गी बस्तियां इसीलिए पनप रही हैं, क्योंकि हमारे नीति-नियंताओं ने इस पर कभी विचार ही नहीं किया कि शहरी जीवन को संचालित करने में सहायक बनने वाला तबका आखिर रहेगा कहां? यह तो सब मानते हैं कि मजदूरों, फैक्ट्री कामगारों, ऑटो-रिक्शा चालकों, रेहड़ी-पटरी वालों, घरेलू एवं ऑफिस सहायकों के साथ-साथ अन्य मेहनतकश लोगों के बगैर शहरों का काम चलने वाला नहीं है, लेकिन इसकी चिंता किसी ने नहीं की कि उनके रहने की समस्या का समाधान कैसे हो? कम से कम अब तो इसकी चिंता करनी ही चाहिए। इसके लिए उपयोग में न आ रही सरकारी जमीनों पर कामगार तबके के लिए बहुमंजिला आवास बनाने की किसी बड़ी योजना पर काम करना होगा।

यद्यपि शहरों में जमीनों का अभाव है, परंतु यह भी एक सच्चाई है कि विभिन्न सरकारी विभागों, सार्वजनिक उपक्रमों, शोध एवं शिक्षा संस्थानों, अ‌र्द्ध सैनिक बलों के शिविरों और छावनियों के पास सैकड़ों एकड़ ऐसी जमीन है, जिसका कोई उपयोग नहीं हो रहा है। इन जमीनों का उपयोग कामगार तबके की आवास समस्या का समाधान करने में आसानी से हो सकता है। चूंकि ये जमीनें महंगी हैं इसलिए उन पर बने घरों को खरीदने की साम‌र्थ्य कामगार तबके की नहीं होगी। ऐसे में उन्हें किराये पर दिया जाना चाहिए। इससे एक तो जमीनों पर मालिकाना हक सरकार का बना रहेगा और दूसरे, जैसे-जैसे कामगार तबके के लोग समर्थ होते जाएंगे, वे किराये का घर छोड़कर निजी आवास का प्रबंध करना पसंद करेंगे।