जनगणना की तैयारियों के बीच जातिगत जनगणना की नए सिरे से मांग उठने पर हैरानी नहीं। जहां बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार इस मसले पर सर्वदलीय बैठक बुलाने की तैयारी कर रहे हैं, वहीं कई अन्य दल भी केंद्र सरकार पर इसके लिए दबाव बढ़ा रहे हैं कि जनगणना जातियों के हिसाब से भी हो। वास्तव में इस तरह की मांग प्रत्येक जनगणना के पहले होती रही है, लेकिन केंद्र सरकारें किसी न किसी कारण उससे इन्कार करती रही हैं। इस बार भी केंद्र सरकार ने यह स्पष्ट कर दिया है कि जातिगत जनगणना कराना संभव नहीं।

माना जाता है कि जाति जनगणना से इसलिए हिचक दिखाई जा रही है, क्योंकि इससे जनगणना में और देर हो सकती है, जो कोविड महामारी के कारण पहले से ही देरी का शिकार है। एक अन्य कारण यह अंदेशा है कि इससे आरक्षण की मांग और तेज हो सकती है। इसी तरह जातिगत जनगणना के आंकड़े सामने आने से आरक्षण की सीमा बढ़ाने की मांग के जोर पकड़ने का अंदेशा है।

जो भी हो, सवाल यह है कि जब अनुसूचित जातियों और जनजातियों की जनगणना होती है, तो फिर अन्य जातियों की जनगणना करने में हर्ज क्या है? हो सकता है कि आंकड़े वैसे न निकलें, जैसे निकलने के कयास लगाए जा रहे हैं। एक तथ्य यह भी है कि आरक्षण में क्रीमी लेयर का जो प्रविधान लागू है, उसे और तर्कसंगत बनाने के साथ आरक्षण व्यवस्था को ऐसा रूप दिया जा सकता है, जिससे पात्र लोगों को ही आरक्षण मिलना सुनिश्चित हो सके।

अपने देश में जातिगत जनगणना 1931 में हुई थी। उसी के आंकड़ों के अनुसार, विभिन्न योजनाएं चलाई जा रही हैं। अन्य पिछड़ा वर्गों को सरकारी नौकरियों और शिक्षा संस्थानों में आरक्षण का आधार भी 1931 के आंकड़े ही हैं। इतने पुराने आंकड़ों के हिसाब से विभिन्न योजनाओं को संचालित किया जाना आदर्श स्थिति नहीं। जाति भारतीय समाज की एक सच्चाई है। उससे मुंह मोड़ने का कोई मतलब नहीं। यह समझा जाना चाहिए कि जातिगत जनगणना ठोस नीतियों के निर्माण में भी सहायक बनेगी और सामाजिक एवं आर्थिक रूप से पिछड़ी उन जातियों की वास्तविक स्थिति भी सामने लाएगी, जिनके बारे में यह माना जाता है कि वे सरकारी योजनाओं से सही तरह लाभान्वित नहीं हैं।

जहां तक इस आशंका की बात है कि जातिगत जनगणना के आंकड़ों से जातिवादी राजनीति करने वाले दलों को अपनी राजनीति चमकाने का मौका मिलेगा, तो विभिन्न जातियों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति को रेखांकित कर ऐसे उपाय किए जा सकते हैं, जिससे जातिगत जनगणना का बेजा राजनीतिक इस्तेमाल न होने पाए। दुरुपयोग के अंदेशे से सच को सामने लाने से बचना उचित नहीं।