जानलेवा साबित होने वाले वायु प्रदूषण की रोकथाम के मामले में किस तरह कामचलाऊ रवैया अपना लिया गया है, इसका पता केंद्र सरकार की ओर से सुप्रीम कोर्ट को दी गई इस जानकारी से चलता है कि पराली यानी फसलों के अवशेष जलाए जाने की समस्या से पार पाने के लिए जल्द ही एक कानून लाया जाएगा। केंद्र सरकार की इस दलील के बाद सुप्रीम कोर्ट ने पूर्व न्यायाधीश मदन बी लोकुर की अध्यक्षता में एक सदस्यीय समिति बनाने के अपने फैसले पर रोक तो लगा दी, लेकिन यह सवाल अपनी जगह खड़ा है कि आखिर अभी तक वायु प्रदूषण की प्रभावी रोकथाम करने और खासकर पराली जलाने से रोकने के लिए किसी कानून का निर्माण क्यों नहीं किया गया?

भले ही केंद्र सरकार की ओर से यह भरोसा दिलाया गया हो कि तीन-चार दिन के अंदर प्रदूषण रोधी व्यापक योजना पेश करने के साथ ही पराली जलाने की समस्या से निपटने के लिए कानून की घोषणा कर दी जाएगी, लेकिन इसका यह मतलब नहीं हो सकता कि ऐसा होते ही वायु प्रदूषण छूमंतर हो जाएगा। आसार इसी बात के हैं कि जब तक यह कानून अस्तित्व में आएगा, तब तक बची-खुची पराली भी जला दी जाएगी।

इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बड़ी मात्रा में पराली जलाई जा चुकी है। एक आंकड़े के अनुसार इसी अक्टूबर माह में अभी तक इन तीनों राज्यों में पराली जलाने के करीब 15 हजार मामले सामने आ चुके हैं। पंजाब में तो पिछले साल से भी ज्यादा पराली जली है। यह तब हुआ जब सर्दियां शुरू होने के पहले ही यह कवायद शुरू हो गई थी कि इस बार पराली नहीं जलने देना है। साफ है कि यह कवायद व्यर्थ रही और केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के आदेश-निर्देश महज कागजी साबित हुए। किसी के लिए भी समझना कठिन है कि आखिर इसके पहले पराली जलाने पर नियंत्रण पाने के लिए किसी स्थायी निकाय का गठन करने और कानून बनाने की आवश्यकता क्यों नहीं समझी गई?

आखिर ऐसा तो है नहीं कि वायु प्रदूषण ने केवल इसी साल सिर उठाया हो। यह खेद की बात है कि जो गंभीर समस्या पिछले लगभग दो दशक से उत्तर भारत के एक बड़े इलाके को सर्दियों में बुरी तरह त्रस्त करती हो और जिसके चलते देश की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बदनामी भी होती हो, उस पर अपेक्षित गंभीरता का परिचय देने से इन्कार किया जा रहा है। इसे देखते हुए सुप्रीम कोर्ट के लिए यह सुनिश्चित करना और आवश्यक हो जाता है कि कम से कम अब कोई हीलाहवाली किसी भी स्तर पर न होने पाए।