इससे बड़ी विडंबना और कोई नहीं कि देश की जिस सबसे बड़ी अदालत से हर कोई न्याय की आस की रखता है उसी के चार वरिष्ठ न्यायाधीश न्याय मांगने के लिए जनता के बीच नजर आएं। सुप्रीम कोर्ट के चार न्यायाधीशों ने यह कहते हुए संवाददाता सम्मेलन आयोजित किया कि मुख्य न्यायाधीश सुप्रीम कोर्ट का काम सही तरह से नहीं कर रहे हैैं। उनका जोर इस पर अधिक था कि मुख्य न्यायाधीश केस आवंटित करने का काम न्यायसंगत तरीके से नहीं कर रहे हैैं। इन चारों न्यायाधीशों ने अपनी शिकायत सार्वजनिक करने के साथ ही एक लंबी-चौड़ी चिट्ठी भी जारी की। यह बात और है कि यह चिट्ठी भी इसे स्पष्ट नहीं कर सकी कि ये चार न्यायाधीश किन खास मामलों को लेकर खफा हैैं। संवाददाता सम्मेलन के दौरान केवल एक ऐसे मामले का जिक्र किया गया। यह जस्टिस लोया की मौत से जुड़ा मामला है। क्या बस एक या फिर दो-चार और मामले सुनवाई के लिए इन चार न्यायाधीशों के पास न जाने के आधार पर यह मान लिया जाए कि सुप्रीम कोर्ट का कामकाज सही तरह से संचालित नहीं हो रहा है? यदि कुछ मामलों के आधार पर इस निष्कर्ष पर पहुंच भी जाया जाए कि मुकदमों का आवंटन सही तरह से नहीं हो रहा था तो क्या इस समस्या का समाधान चार वरिष्ठ न्यायाधीशों की ओर से जनता के बीच अपनी बात कहने से निकल आया? आखिर बेचारी जनता क्या कर सकती है? क्या यह बेहतर नहीं होता कि सुप्रीम कोर्ट के अंदर का मसला उसके स्तर पर ही सुलझाया जाता?
जनता की अदालत के समक्ष आने वाले न्यायाधीशों की मानें तो उन्होंने मुख्य न्यायाधीश के समक्ष अपनी आपत्ति जाहिर की थी, लेकिन समस्या जस की तस रही। यह सही हो सकता है, लेकिन क्या इसी के साथ मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ संवाददाता सम्मेलन करने के अलावा अन्य कोई उपाय नहीं रह गया था? क्या किसी संस्था में कोई समस्या आ जाए तो उसका समाधान यही है कि उसके चार वरिष्ठ सदस्य सड़क पर आकर अपनी बात कहें? क्या ये न्यायाधीश जनता के सामने आने के पहले राष्ट्रपति का दरवाजा नहीं खटखटा सकते थे? क्या वे मुकदमों के आवंटन के मसले को किसी बेंच को सौंपने की मांग नहीं कर सकते थे? क्या यह विचित्र नहीं कि मुख्य न्यायाधीश के प्रति सार्वजनिक रूप से अविश्वास जताने के बाद यह उम्मीद की जा रही कि अब सब कुछ ठीक हो जाएगा? सुप्रीम कोर्ट के कामकाज पर आपत्ति जताने वाले न्यायाधीशों का यह भी कहना है कि मुख्य न्यायाधीश सभी बराबर न्यायाधीशों में से एक हैैं और फर्क केवल इतना है कि वह पहले नंबर हैैं। क्या यह बात सुप्रीम कोर्ट के अन्य न्यायाधीशों पर लागू नहीं होती? क्या इन चार न्यायाधीशों ने मुख्य न्यायाधीश के साथ-साथ शेष अन्य न्यायाधीशों की निष्पक्षता पर भी सवाल नहीं उठा दिया? क्या यह कहने की कोशिश नहीं की गई कि सुप्रीम कोर्ट के शेष करीब 20 न्यायाधीश उन मामलों की सुनवाई करने के योग्य नहीं जो उन्हें सौंपे गए? दरअसल ऐसे एक नहीं अनेक सवाल उभर आए हैैं और समस्या यह है कि जनता के पास उनका कोई जवाब नहीं।

[ मुख्य संपादकीय ]