नई लोकसभा के गठन के बाद आयोजित संसद का पहला सत्र यह प्रदर्शित करेगा कि संसदीय कामकाज के तौर-तरीकों में कोई बुनियादी बदलाव आने वाला है या नहीं? इस सत्र के पहले बुलाई गई सर्वदलीय बैठक में पक्ष-विपक्ष के नेताओं की ओर से भले ही चाहे जैसी उम्मीद जताई गई हो, अब तक का अनुभव कोई बहुत अच्छा नहीं रहा है। संसद के कामकाज को सुचारू रूप से चलाने के मामले में इस तरह की सर्वदलीय बैठक नाकाम ही अधिक सिद्ध हुई हैं। बेहतर हो कि इस बार नाकामी के इस सिलसिले को तोड़ा जाए। इसके लिए यह आवश्यक है कि सत्तापक्ष और विपक्ष, दोनों ही सकारात्मक रवैये का परिचय दें और यह ध्यान रखें कि देश उनकी ओर निगाहें लगाए हुए है।

राजनीतिक दलों को यह ध्यान रखना चाहिए कि हाल में संपन्न लोकसभा चुनाव के नतीजे उन्हें यही संदेश दे रहे हैं कि अब चीजें बदलनी चाहिए। अच्छा यह होगा कि इस संदेश को दोनों ही पक्ष और खासकर विपक्ष सही तरह से ग्रहण करे। कई विपक्षी दलों की ओर से यह जो प्रकट करने की कोशिश हो रही है कि जनता ने एक बार फिर गलती कर दी है अथवा सत्तापक्ष उसे बरगलाने में सफल रहा वह सच्चाई से मुंह मोड़ने की कसरत तो है ही, जनता के प्रति अविश्वास का परिचायक भी है। मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस की ओर से चुनाव नतीजों की जैसी व्याख्या की जा रही है वह हास्यास्पद है। कांग्रेस जनादेश की मनचाही व्याख्या करने को स्वतंत्र है, लेकिन उससे यही अपेक्षित है कि वह संसद में एक जिम्मेदार विपक्षी दल की भूमिका का निर्वाह करे।

एक बड़ी हद तक यह सही है कि लोकतंत्र में विपक्ष को भी सशक्त होना चाहिए, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि विपक्ष की ताकत संख्या बल से कम उसके तार्किक रवैये से अधिक निर्धारित होती है। अतीत में ऐसा कई बार हो चुका है और विशेष रूप से जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के कार्यकाल में जब विपक्ष संख्या बल के लिहाज से तो कमजोर था, लेकिन अपने जिम्मेदार व्यवहार के चलते वह कहीं अधिक प्रभावी था।

नि:संदेह विपक्ष का काम सत्तापक्ष की कमजोरियों को उजागर करना और जरूरत पड़ने पर उसे कठघरे में खड़ा करना भी होता है, लेकिन इसी के साथ उसका एक दायित्व सरकार को रचनात्मक सहयोग देना भी होता है। बीते कुछ समय से तो ऐसी प्रतीति हो रही है कि विपक्ष ने यह समझ लिया है कि उसका मुख्य काम विरोध के लिए विरोध करना हो गया है। दुर्भाग्य से विपक्ष अपने ऐसे रवैये का प्रदर्शन लोकसभा के साथ-साथ राज्यसभा में भी करने लगा है।

व्यर्थ का हो-हल्ला संसद की गरिमा ही नहीं गिराता, बल्कि राजनीतिक दलों की छवि पर भी बुरा असर डालता है। इससे भी खराब बात यह होती है कि जब संसद सही तरह से कार्य नहीं करती तो देश के काम प्रभावित होते हैं। संसद का काम देश को दिशा दिखाना है। संसद के इस सत्र में राष्ट्रीय महत्व के अनेक विधेयक लंबित हैं। इन विधेयकों पर सार्थक चर्चा करके समुचित निर्णय लिए जाने की जरूरत है न कि सरकार की राह रोकने की।

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