कृषि सुधार की दिशा में महत्वपूर्ण माने जा रहे विधेयकों के राज्यसभा से भी पारित होने का मतलब है कि कुछ विपक्षी दल अकारण यह शोर मचा रहे थे कि संपूर्ण विपक्ष उनके खिलाफ है। यह अच्छा नहीं हुआ कि पर्याप्त संख्याबल जुटाने में असमर्थ रहे विपक्षी दलों ने इन विधेयकों को पारित होने से रोकने के लिए छीना-झपटी का भी सहारा लिया। तृणमूल कांग्रेस के एक सांसद राज्यसभा के उपसभापति से जिस तरह हाथापाई सी करते देखे गए, उसे बाहुबल के प्रदर्शन के अलावा और कुछ नहीं कहा जा सकता। इससे बड़ी विडंबना और कोई नहीं कि संसद के उच्च सदन में संख्याबल का मुकाबला बाहुबल से करने की कोशिश की जाए। कृषि सुधार संबंधी विधेयकों के पारित होने के बाद कांग्रेस और कुछ अन्य विपक्षी दल यह माहौल बनाकर आम लोगों और खासकर किसानों को गुमराह ही कर रहे हैं कि सरकार ने ध्वनिमत से विधेयकों को पारित कराकर सही नहीं किया।

यदि उन्हें ध्वनिमत की व्यवस्था स्वीकार्य नहीं थी तो फिर उन्होंने मत विभाजन की मांग क्यों नहीं की? हैरानी नहीं कि संख्याबल की कमजोरी उजागर होने से बचने के लिए ही यह मांग करने से बचा गया हो। जो भी हो, किसानों को ऐसे दलों के बहकावे में आने से बचना होगा, जो कल तक वह सब कुछ करने की जरूरत जता रहे थे, जिसे कृषि उपज व्यापार एवं वाणिज्य (संवर्धन एवं सरलीकरण) तथा कृषक (सशक्तीकरण एवं संरक्षण) कीमत आश्वासन और कृषि सेवा पर करार विधेयक के जरिये किया गया है। कांग्रेस ने तो इस तरह की बातें अपने घोषणा पत्र में भी दर्ज की थीं।

यह देखना दयनीय है कि कांग्रेस संकीर्ण राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति के लिए किसानों को सड़कों पर उतार रही है और वह भी तब, जब यह माना जा रहा है कि जैसे 1991 में उद्योग-व्यापार जगत को बंधनों से मुक्त किया गया था, उसी तरह कृषि सुधारों के माध्यम से खेती को अप्रासंगिक कानूनों की जकड़न से बाहर निकाला गया है। अच्छा हो कि किसान सड़कों पर उतरने से पहले यह देखें-परखें कि नई व्यवस्था से उन्हें नुकसान होने की जो बातें की जा रही हैं, उनमें कितनी सच्चाई है? उन्हें यह भी समझना होगा कि न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी की व्यवस्था खत्म होने की बातें कोरी अफवाह के अलावा और कुछ नहीं।

उन्हें इससे भी अवगत होना चाहिए कि कृषि उपज बेचने की पुरानी व्यवस्था को खत्म नहीं किया जा रहा, बल्कि उसके समानांतर एक नई व्यवस्था बनाई जा रही है। अब उनके पास अपनी उपज बेचने के दो विकल्प होंगे। पहले विकल्पहीनता की स्थिति थी और इसी कारण उन्हें अपनी उपज का सही मूल्य नहीं मिलता था।