दिल्ली-हरियाणा सीमा पर कृषि कानून विरोधी आंदोलन के प्रमुख ठिकाने-सिंघु बार्डर पर एक युवक की जिस बेरहमी से हाथ काटकर हत्या कर दी गई और फिर उसके शव को सार्वजनिक रूप से लटका दिया गया, वह बर्बरता की पराकाष्ठा है। बुराई पर अच्छाई की जीत के पर्व पर अंजाम दिए गए इस राक्षसी कृत्य ने सभ्य समाज को लज्जित करने और क्षोभ के साथ खौफ से भरने का ही काम नहीं किया, बल्कि यह भी साबित किया कि जब जिद पर सवार किसी आंदोलन को जरूरत से ज्यादा लंबा खींचा जाता है, उसमें किस तरह अराजक तत्व कब्जा कर लेते हैं। इन तत्वों की नृशंसता का अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि पहले तो उन्होंने तालिबानी तरीके से युवक को तड़पा-तड़पा कर मारा और फिर उसे जायज भी ठहराया। यह आतंकी हरकत नहीं तो और क्या है?

क्या कानून के शासन को शर्मसार करने वाली यह वीभत्स घटना यही नहीं बताती कि तथाकथित किसान आंदोलन में ऐसे तत्व हावी हो गए हैं, जिनका मकसद अपनी मनमानी करना और दहशत फैलाना है? हालांकि इस आंदोलन में ऐसे अराजक तत्व बहुत पहले ही घुस गए थे और इसी का नतीजा थी लाल किले की वह घटना, जिसने देश को शर्मिदा किया था, लेकिन किसान नेता या तो उनसे पल्ला झाड़ते रहे या फिर उनका बचाव करते हुए पुलिस-प्रशासन पर दोष मढ़ते रहे। अब भी वे यही रवैया अपनाए हुए हैं।

सिंघु बार्डर की बर्बर घटना की जांच शुरू होने के पहले ही किसान नेता अपने लोगों को तो क्लीनचिट दे रहे हैं, लेकिन लखीमपुर खीरी मामले की जांच का इंतजार किए बगैर न केवल निष्कर्ष पर पहुंचे जा रहे हैं, बल्कि आरोपितों की सजा का निर्धारण भी कर रहे हैं। इतना ही नहीं, वे पीट-पीट कर हत्या को जायज भी ठहरा रहे हैं। आखिर कौन यकीन करेगा कि इस आंदोलन को खाद-पानी देने वाले कानून, संविधान पर यकीन रखते हैं और वे गांधी, आंबेडकर के रास्ते पर चल रहे हैं? सच तो यह है कि इन सबकी आड़ लेकर हर तरह की मनमानी की जा रही है।

इस क्रम में न तो सरकार की सुनी जा रही है और न ही सुप्रीम कोर्ट की। वास्तव में इसी कारण रह-रह कर कानून एवं व्यवस्था को धता बताने वाली घटनाएं सामने आ रही हैं। चूंकि इसके आसार नहीं कि सिंघु बार्डर में जो दरिंदगी दिखाई गई, उसके बाद किसान नेता चेतेंगे और यह समङोंगे कि वे देश को अराजकता की आग में झोंकने का काम कर रहे हैं, इसलिए सरकार और सुप्रीम कोर्ट को चेतना होगा। अब और देरी स्वीकार नहीं, क्योंकि पहले ही बहुत देर हो चुकी है।