चुनाव के समय बड़े पैमाने पर धन के दुरुपयोग पर चिंता जताते हुए मुख्य चुनाव आयुक्त ओपी रावत ने यह जो कहा कि मौजूदा कानूनी ढांचा इस समस्या से निपटने में समर्थ नहीं उस पर सरकार के साथ-साथ सभी दलों को भी गंभीरता से ध्यान देना चाहिए। यह इसलिए आवश्यक है, क्योंकि एक ओर जहां रुपये बांटकर चुनाव जीतने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है वहीं यह भी देखने में आ रहा है कि लोग चुनावी बांड के जरिये राजनीतिक दलों को चंदा देने में पर्याप्त रुचि नहीं दिखा रहे हैैं। इससे उत्साहित नहीं हो सकते कि निर्वाचन आयोग चुनावों में कालेधन की भूमिका रोकने पर विचार कर रहा है, क्योंकि अनुभव यही बताता है कि उसके सुझावों पर राजनीतिक दल मुश्किल से ही ध्यान देते हैैं। वस्तुत: इसी कारण चुनाव सुधारों की रफ्तार सुस्त है।

यह एक तथ्य है कि हाल के समय में जो भी चुनाव सुधार लागू हुए वे सुप्रीम कोर्ट की पहल पर ही लागू हो सके। चुनाव प्रक्रिया को साफ-सुथरा और निष्पक्ष बनाने के निर्वाचन आयोग के प्रयासों को राजनीतिक दल किस तरह अनदेखा करते हैैं, इसका पता इससे भी चलता है कि संगीन मामलों का सामना कर रहे लोगों को चुनाव लड़ने से रोकने के मामले में कोई फैसला नहीं हो पा रहा है। यह भी किसी से छिपा नहीं कि चुनावी बांड के जरिये चंदा देने की व्यवस्था निर्वाचन आयोग के सुझावों के अनुरूप नहीं।

यह सही है कि मौजूदा चुनाव प्रक्रिया उन तमाम खामियों से मुक्त है जो दो-तीन दशक पहले नजर आती थीं, लेकिन यह चिंताजनक है कि कुछ नई खामियां जड़ें जमाती दिख रही हैैं। इनमें सबसे गंभीर कालेधन का बढ़ता दखल ही है। एक ओर चुनाव खर्चीले होते जा रहे हैैं और दूसरी ओर पैसे देकर वोट हासिल करने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। निर्वाचन आयोग की तमाम सतर्कता और सख्ती के बावजूद चुनावों के दौरान मतदाताओं के बीच गुपचुप तरीके से पैसे बांटे जा रहे हैैं। जो भी ऐसा करने में समर्थ होते हैैं वे चुनाव प्रक्रिया को गंभीर रूप से प्रभावित करते हैैं।

एक अनुमान है कि चुनावों के दौरान मतदाताओं को दिए जाने वाले पैसे की जितनी बरामदगी होती है उससे कहीं अधिक धन निर्वाचन आयोग की निगाह में ही नहीं आ पाता। अब तो यह भी देखने में आ रहा है कि आचार संहिता लागू होने के पहले ही मतदाताओं को किसी न किसी तरह उपकृत कर दिया जाता है। इस सबको देखते हुए मुख्य चुनाव आयुक्त का यह कहना सही है कि धनबल पर प्रभावी नियंत्रण के बगैर सरकारी खर्चे पर चुनाव प्रचार की सुविधा देने का विकल्प उचित नहीं।

धनबल के अलावा चुनावी प्रक्रिया के समक्ष एक नया खतरा सूचना-तकनीक का दुरुपयोग है। अब यह एक सच्चाई है कि सोशल मीडिया के जरिये चुनावों को प्रभावित करने का काम होने लगा है। सोशल मीडिया कंपनियों के ऐसे आश्वासनों पर भरोसा नहीं किया जा सकता कि वे जनमत को प्रभावित करने वाले अनुचित तरीकों के प्रति सतर्क हैैं। निष्पक्ष चुनाव प्रक्रिया के समक्ष बढ़ती चुनौतियों को देखते हुए यह वक्त की जरूरत है कि निर्वाचन आयोग को और अधिकार दिए जाएं।