चुनाव आयोग यह चेतावनी थोड़ा और पहले जारी करता तो बेहतर होता कि अपने आपराधिक रिकॉर्ड की सूचना विज्ञापन की शक्ल में अखबारों और टीवी चैनलों में न देने वाले उम्मीदवारों के खिलाफ कार्रवाई हो सकती है, क्योंकि कई जगह चुनाव प्रचार थम चुका है। इसके चलते अपने आपराधिक रिकॉर्ड को विज्ञापित न करने वाले प्रत्याशी इस बहाने की आड़ ले सकते हैं कि उन्हें समय पर सही जानकारी नहीं मिल सकी अथवा वे इस आशय के सुप्रीम कोर्ट के निर्णय से अवगत नहीं थे।

चुनाव आयोग ने यह तो स्पष्ट कर दिया कि अपने आपराधिक मामलों को सार्वजनिक न करने वाले प्रत्याशियों को अदालत की अवमानना का सामना करना पड़ सकता है, लेकिन यह साफ नहीं कि इसके तहत उन्हें किस तरह का दंड भुगतना पड़ सकता है और यह किसी से छिपा नहीं कि नेतागण अदालती कार्यवाही की तब तक परवाह नहीं करते जब तक उनकी विधायकी अथवा सांसदी के लिए कोई खतरा न हो। कुल मिलाकर इसमें संदेह है कि सुप्रीम कोर्ट की इस व्यवस्था से राजनीति के अपराधीकरण पर प्रभावी ढंग से अंकुश लगेगा कि आपराधिक मामलों का सामना कर रहे प्रत्याशियों को अपने ऐसे मामलों को मीडिया के जरिये सार्वजनिक करना पड़ेगा।

इस संदेह का कारण यह है कि उम्मीदवारों की ओर से नामांकन पत्रों में अपने आपराधिक मामलों का विवरण देने की व्यवस्था के बाद से ऐसे कोई ठोस निष्कर्ष सामने नहीं आए हैं कि दागी लोगों के विधानमंडलों में पहुंचने का सिलसिला थमा है। एक बड़ी संख्या में आपराधिक अतीत वाले लोग संसद और विधानसभाओं में पहुंचने में समर्थ हैं। इसका एक बड़ा कारण ऐसे तत्वों की जाति, संप्रदाय, क्षेत्र आदि के बहाने चुनाव जीतने की क्षमता है।

राजनीतिक दल शुचिता और मूल्यों-मर्यादा की चाहे जितनी बात करें,सच यह है कि वे दागी नेताओं की चुनाव जीतने की क्षमता के कायल हैं। उनके पास यह भी एक बहाना होता है कि दोषी सिद्ध न होने तक हर व्यक्ति निर्दोष है। इसी आड़ में वे कुख्यात से कुख्यात लोगों को अपना उम्मीदवार बनाते हैं और यह तर्क भी देते हैं कि वे उन्हें सुधरने का अवसर दे रहे हैं। राजनीतिक दलों की इसी प्रवृत्ति का यह परिणाम है कि अब आपराधिक चरित्र वाले लोग राजनीति में जाना कहीं अधिक पसंद कर रहे हैं।

दरअसल इसी कारण राजनीति का अपराधीकरण रुकने का नाम नहीं ले रहा है। कुछ समय पहले सुप्रीम कोर्ट ने संगीन मामलों और साथ ही उनसे संबंधित आरोप पत्र का सामना कर रहे लोगों को चुनाव लड़ने से वंचित करने की मांग वाली एक याचिका का निपटारा करते हुए यह आदेश दिया था कि इस बारे में कानून बनाने की जरूरत है और यह काम संसद को करना चाहिए। इसमें संदेह है कि राजनीतिक दल ऐसे किसी कानून का निर्माण करने के लिए आगे आएंगे जिससे संगीन किस्म के आपराधिक मामलों का सामना कर रहे लोगों को चुनाव लड़ने से रोका जा सके। जिस तरह ऐसा कोई कानून बनने की संभावना बहुत कम है उसी तरह इसके आसार भी कम हैं कि राजनीतिक दल स्वत: दागदार छवि और चरित्र वालों से दूरी बनाएंगे। साफ है कि जनता को और जागरूक होना होगा।