तृणमूल कांग्रेस जिस तरह दूसरे दलों के नेताओं को अपनी पार्टी में शामिल करने का अभियान तेज किए हुए है, उससे यह साफ है कि वह राष्ट्रीय पार्टी बनने के लिए सक्रिय है। गत दिवस कांग्रेस नेता कीर्ति आजाद और अशोक तंवर के साथ जदयू के पूर्व महासचिव पवन वर्मा ने भी ममता बनर्जी की पार्टी का दामन थाम लिया। इसके पहले भी कुछ अन्य नेता तृणमूल कांग्रेस जा चुके हैं। इनमें असम, उत्तर प्रदेश और गोवा के कांग्रेस नेता प्रमुख हैं। ममता की महत्वाकांक्षा से यदि किसी को सबसे अधिक चिंतित होना चाहिए तो कांग्रेस को, क्योंकि वह उसके ही नेताओं को तोड़ने में जुटी हुई हैं।

खुद को राष्ट्रीय स्वरूप देने के लिए तृणमूल कांग्रेस गोवा के साथ त्रिपुरा में भी चुनाव लड़ने की तैयारी कर रही है। वह अन्य राज्यों में भी ऐसा ही कर सकती है। इसमें हर्ज नहीं। प्रत्येक क्षेत्रीय दल को अपना विस्तार करने और खुद को राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित करने का अधिकार है, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि इसके पहले अन्य क्षेत्रीय दलों की ऐसी ही कोशिश नाकाम रही। इसका मुख्य कारण रहा उनकी ओर से क्षेत्रीय मुद्दों पर ही राजनीति करना और राष्ट्रीय महत्व के मसलों पर न तो अपना नजरिया विकसित करना और न ही उससे देश को प्रभावित कर पाना। देखना है कि तृणमूल कांग्रेस इस कमजोरी को दूर कर पाने में सफल रहती है या नहीं? जो भी हो, इस तथ्य की उपेक्षा नहीं की जा सकती कि अभी तक ममता सरकार केंद्र सरकार से टकराने के लिए ही अधिक जानी जाती है।

ममता ने न केवल बंगाल के मसलों पर केंद्र के साथ टकराव वाला रवैया अपनाया है, बल्कि राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों पर भी। यदि बांग्लादेश के साथ प्रस्तावित कुछ समझौते लंबित हैं तो ममता के रवैये के कारण। सीमा सुरक्षा बल के अधिकारों में वृद्धि के मसले पर भी तृणमूल कांग्रेस के रवैये से यह साफ है कि वह राष्ट्रीय हितों से अधिक महत्व बंगाल के हितों को दे रही है। दुर्भाग्य से इस मसले पर कांग्रेस का रुख भी तृणमूल कांग्रेस जैसा है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि राष्ट्रीय हितों के लिए यही उचित है।

यदि ममता को राष्ट्रीय नेता के रूप में अपनी पहचान बनानी है तो उन्हें न केवल क्षेत्रीयता के दायरे से बाहर आना होगा, बल्कि राष्ट्रीय एवं अंतररराष्ट्रीय मुद्दों पर अपने नजरिये से देश की जनता को परिचित कराने के साथ उससे उन्हें सहमत भी करना होगा। बिना ऐसा किए दूसरे दलों के नेताओं को अपने साथ खड़ा करना तो आसान है, लेकिन अपनी राष्ट्रीय महत्वाकांक्षा की पूर्ति कर पाना मुश्किल।