विवेक कौल। पिछले कुछ महीनों में कुछ ऐसे जानकारों की टोली सामने आ रही है जो तमाम मिसालों से यह साबित करने में तुले हैं कि देश में किसी तरह की कोई आर्थिक सुस्ती नहीं है। यह साबित करना एक पेशा सा बन गया है जो मुख्य रूप से सोशल मीडिया पर अपना असर दिखा रहा है। ऐसे तथाकथित विशेषज्ञ फेसबुक, ट्विटर और वाट्सएप पर अपने इस ज्ञान की गंगा बहा रहे हैं।

कोई कहता है कि अगर देश में इतनी आर्थिक सुस्ती है तो एमजी मोटर अपनी हेक्टर एसयूवी को इतने बड़े पैमाने पर बेचने में कैसे सफल रही? इस कंपनी ने सितंबर-अक्टूबर में 6,184 एसयूवी बेची है। यह सुनने में अच्छा लग सकता है, लेकिन अगर हम देश में गाड़ियों की कुल बिक्री के आंकड़ों पर गौर करेंगे तो यह उसका बहुत ही छोटा हिस्सा है।

अप्रैल से लेकर सितंबर 2018 के बीच में भारत में करीब 11.7 लाख गाड़ियों की बिक्री हुई थी। उसकी तुलना में इस वर्ष इसी अवधि में करीब 8.15 लाख गाड़ियां बिकी हैं। तो इसका अर्थ यही हुआ कि इस साल गाड़ियों की बिक्री में पिछले साल की तुलना में 3.55 लाख या करीब 30 प्रतिशत की कमी आई है। सच यह भी है कि इन 8.15 लाख गाड़ियों में भी कुछ ही मॉडल ज्यादा बिके हैं और कुछ की बिक्री कम रही। किसी भी कहानी के सिर्फ एक पहलू से पूरी तस्वीर स्पष्ट नहीं होती। 

इसीलिए अगर धनतेरस पर मर्सिडीज की बिक्री में तेजी आई तो इसका यह संकेत नहीं कि आर्थिक सुस्ती की आशंकाएं पूरी तरह गायब हो गई हैं। यहां यह बात भी जेहन में रखनी होगी कि जो तबका मर्सिडीज जैसी गाड़ियां खरीदने की हैसियत रखता है, उसके लिए आर्थिक सुस्ती बहुत ज्यादा मायने नहीं रखती। यह वर्ग आर्थिक सुस्ती के माहौल में भी खर्च तो करेगा ही। वैसे भी ऐसा नहीं है कि लोगों ने खर्चा करना पूरी तरह से बंद कर दिया है। असल में समस्या इस बात से हो रही है लोग जितना पहले खर्च कर रहे थे, उसकी तुलना में अब कम कर रहे हैं या पहले जिस रफ्तार से निजी खपत बढ़ रही थी, वह अब उतनी तेजी से नहीं बढ़ रही है।

आर्थिक सुस्ती को नकारने वालों के कुछ और तर्को पर गौर कीजिए। वे कहेंगे कि देश भर के शॉपिंग मॉल्स में कायम रौनक सब कुछ सही होने की ओर संकेत करती है। इस रौनक से पता चलता है कि देश में कहीं कोई आर्थिक सुस्ती नहीं है। यह तर्क भी बहुत अस्पष्ट है। कोई भी व्यक्ति आखिर कैसे माप सकता है कि मॉल या कोई बाजार पूरी तरह भरा हुआ है या नहीं? या फिर वह आधा भरा हुआ है या तीन-चौथाई? आखिर इसे मापने का क्या पैमाना है?

यहां यही देखना होगा कि किसी मॉल या बाजार में जो लोग आ रहे हैं उनमें से कितने वास्तविक खरीदार हैं? क्या वे सिर्फ घूमने-फिरने और मौजमस्ती के लिए ही आ रहे हैं? क्या सिनेमा देखने के बाद वे मॉल में स्थित दुकानों में खरीदारी का इरादा भी रखते हैं? यह कहने का कोई मतलब नहीं कि बाजार और मॉलों में भीड़ है और इसलिए आर्थिक सुस्ती नहीं है।

मैं पिछले दस वर्षो से दिल्ली में दिवाली मनाता आया हूं। इस बार भी मैं दिल्ली में ही था। इस दौरान मैं जिन-जिन मॉल और बाजारों में गया वहां मुङो बीते कुछ वर्षो की तुलना में कम चहलकदमी नजर आई। मॉल और बाजारों में सजावट भी वैसी नहीं थी। वहां वैसी रौनक गायब थी जैसी अमूमन दिवाली के दौरान होती है। दुकानदार ग्राहकों की बाट जोहते रहे जो बाजार से नदारद थे। यह मेरा निजी अनुभव था।

क्या पूरे भारत में भी ऐसा ही हुआ? मैं सिर्फ अपने अनुभव के आधार पर ऐसा दावा नहीं कर सकता। अगर मैं ऐसा करूंगा तो वही गलती दोहराऊंगा जिनके बारे में मैंने शुरुआत में ही चर्चा की है। जिन बाजारों और मॉल में मैं गया, वे खाली थे, पर हो सकता है कि दिल्ली के और मॉल या बाजारों में खासी भीड़भाड़ रही हो। यह भी संभव है कि अन्य शहरों में लोग ज्यादा पैसा खर्च कर रहे हों। यह आकलन मैं केवल निजी अनुभव के आधार पर नहीं कर सकता। इसके लिए व्यापक और समग्र आंकड़ों की दरकार होगी।

कन्फेडरेशन ऑफ ऑल इंडिया टेडर्स ने हाल में आंकड़े जारी किए हैं कि इस बार त्योहारी सीजन यानी सितंबर-अक्टूबर में बिक्री 40 प्रतिशत कम रही। वहीं मॉल और बड़े बाजारों की दुकानों में लोगों की आवाजाही 60 प्रतिशत तक घटी। इन आंकड़ों से यह तो अंदाजा लगता है कि पिछले साल की तुलना में बाजार में रौनक खासी कम रही। भाजपा के कुछ नेताओं और मंत्रियों ने भी यह समझाने कि कोशिश की है कि देश में कोई आर्थिक सुस्ती नहीं है।

टेलीकॉम मंत्री रवि शंकर प्रसाद ने कुछ समय पहले देश को यह बताया कि दो अक्टूबर को लोगों ने 120 करोड़ रुपये सिनेमा देखने में खर्च किए और इसलिए ‘ऑल इज वेल’ है। उन्होंने सवाल उठाया कि अगर आर्थिक सुस्ती होती तो क्या लोग इतना पैसा खर्चा करते? इस बार दो अक्टूबर को तीन बड़ी फिल्में वॉर (हिंदी और अन्य भाषाओं में), जोकर (इंग्लिश में) और सई रा नरसिम्हा रेड्डी (तेलुगु और अन्य भाषाओं में) एक साथ रिलीज हुई थीं। दो अक्टूबर छुट्टी का दिन भी था। ऐसे मौके पर एक साथ तीन बड़ी फिल्में एक साथ रिलीज हुई थीं। ऐसा बहुत कम होता है।

अगर 2019-20 के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के पूर्वानुमान को देखें तो इस साल के दौरान भारत में निजी खपत करीब एक सौ पच्चीस लाख करोड़ रुपये होने वाली है। इसका मतलब यह हुआ कि साल में किसी भी दिन औसतन करीब 34,250 करोड़ रुपये की निजी खपत होती है। जिस 120 करोड़ रुपये की बात रविशंकर प्रसाद ने की वह 34,250 करोड़ का 0.4 प्रतिशत हिस्सा है। साफ है कि 120 करोड़ सुनने में चाहे बहुत बड़ा लगे, पर अगर हम उसे सही परिप्रेक्ष्य में देखें तो यह हर रोज के औसतन निजी खपत का बहुत ही छोटा सा हिस्सा है। इसके आधार पर यह बिल्कुल नहीं कहा जा सकता कि देश में आर्थिक सुस्ती नहीं है।

हालांकि रविशंकर प्रसाद ने अपना बयान वापस ले लिया, लेकिन कुछ लोग अभी भी यह मानने के लिए तैयार नहीं कि आर्थिक सुस्ती आ चुकी है। वास्तव में केवल सिस्टम-लेवल का डाटा ही यह बता सकता है कि देश में आर्थिक सुस्ती है। इस डाटा के किसी एक छोटे हिस्से लेकर यह बताने की कोशिश करने का कोई औचित्य नहीं कि देश में आर्थिक सुस्ती नहीं है, लेकिन तमाम वाट्सएप संदेश हमें यही समझाने की कोशिश करे हैं। सौ बातों की एक बात कि इनसे बचने और आर्थिक सुस्ती का मुकाबला करने की जरूरत है।

(लेखक, एक स्तंभकार अर्थशास्त्री एवं इजी मनी ट्राइलॉजी के लेखक हैं)