कर्नाटक में जो कुछ हो रहा है उस पर शायद ही किसी को हैरत हो। सत्ताधारी गठबंधन जद-एस और कांग्रेस के 11 विधायक जिस तरह इस्तीफा देकर राज्य के बाहर निकल गए उससे यह स्पष्ट है कि वह अपना फैसला बदलने वाले नहीं हैैं। इन 11 विधायकों के साथ जद-एस और कांग्रेस से इस्तीफा देने वाले विधायकों की कुल संख्या 14 पहुंच गई है। कुमारस्वामी के नेतृत्व वाली गठबंधन सरकार को अल्पमत में आता देखकर भाजपा ने जिस तरह अपनी सक्रियता बढ़ा दी है उससे यह साफ हो जाता है कि ये इस्तीफे क्यों दिए गए हैैं?

कहना कठिन है कि कर्नाटक में सत्ता परिवर्तन कब और कैसे होता है, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि कुमारस्वामी सरकार पहले दिन से ही अस्थिर नजर आ रही थी। इसकी एक बड़ी वजह जद-एस और कांग्रेस की ओर से केवल सत्ता के लिए दोस्ती कायम करना था। इस दोस्ती का एकमात्र उद्देश्य भाजपा को सत्ता से बाहर रखना था। यह दोस्ती अवसरवाद की राजनीति का परिचायक ही थी, क्योंकि भाजपा, कांग्रेस और जद-एस एक-दूसरे के खिलाफ चुनाव लड़े थे।

विधानसभा चुनावों में भाजपा पहले नंबर पर आई, लेकिन बहुमत से दूर रह गई। बहुमत जुटाने की उसकी कोशिश नाकाम रहने पर कांग्रेस के समर्थन से जद-एस के नेतृत्व में गठबंधन सरकार ने सत्ता संभाली, लेकिन दोनों में खटपट जारी रही। इसकी गिनती करना कठिन है कि मुख्यमंत्री कुमारस्वामी ने कितनी बार अपना दुखड़ा रोया? लगता है कांग्रेस ने या तो यह समझने की कोशिश नहीं की कि उन्हें सरकार चलाने में क्या कष्ट हो रहा है या फिर उसने उसे दूर करना जरूरी नहीं समझा।

कुमारस्वामी सरकार बेमेल गठबंधन वाली पहली सरकार नहीं। इस तरह की सरकारें पहले भी बनती रही हैैं और उनमें से ज्यादातर अपना कार्यकाल पूरा करने में नाकाम भी रही हैैं। ऐसी सरकारें तब अवश्य ही नाकामी का शिकार होती हैैं जब वे बिना किसी साझा कार्यक्रम के चलती हैैं। येन-केन-प्रकारेण सत्ता में बने रहने का मकसद भी उन्हें ले डूबता है। ऐसी सरकारें शायद ही कभी जनता की अपेक्षाओं को पूरा कर पाती हों, लेकिन वे इसलिए बनती हैैं, क्योंकि त्रिशंकु सदन की स्थिति में इसके अलावा और कोई उपाय नहीं रहता कि एक-दूसरे के खिलाफ चुनाव लड़े दल एक साथ आएं या फिर उनमें तोड़फोड़ हो।

कर्नाटक इसकी ही गवाही दे रहा है। यहां पहले जनादेश को किनारे कर बेमेल गठबंधन बना और अब यह गठबंधन टूट-फूट से दो-चार हो रहा है। पता नहीं इसका नतीजा क्या होगा, लेकिन हमारे नीति-नियंता यह समझें तो बेहतर कि कर्नाटक की जनता ने इस इरादे से मतदान नहीं किया था कि चुनाव बाद जद-एस और कांग्रेस एक साथ आकर सरकार बना लें।

स्पष्ट है कि इस सवाल का जवाब तलाशने की सख्त जरूरत है कि त्रिशंकु सदन की स्थिति में सरकार का गठन कैसे हो? इस सवाल का यह जवाब नहीं हो सकता कि किसी को बहुमत न मिलने की स्थिति में नए सिरे से चुनाव कराए जाएं। एक तो दोबारा चुनाव के बाद त्रिशंकु सदन से मुक्ति मिलना आवश्यक नहीं और दूसरे, मध्यावधि चुनाव सरकारी खजाने पर बोझ ही डालते हैैं।