भाजपा से अलग होने के बाद शिवसेना सत्ता के लोभ में जिस तरह राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और कांग्रेस से मिलकर सरकार बनाने की राह पर बढ़ चली है उससे अवसरवादी राजनीति का एक और शर्मनाक उदाहरण ही पेश होने जा रहा है। वैसे तो देश में कोई भी ऐसा दल नहीं जो अवसरवादी राजनीति से अछूता हो, लेकिन जो शिवसेना कर रही है वह राजनीतिक निर्लज्जता की पराकाष्ठा है। हिंदुत्व की राजनीति का दम भरने और कांग्रेस एवं राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी को सदैव कोसने वाली शिवसेना यही साबित कर रही है कि वह सत्ता के लिए किसी भी हद तक गिर सकती है। वह ऐसे समय अपनी रीति-नीति को धता बताकर कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी को गले लगाने जा रही है जब अयोध्या फैसला आने के बाद देश उन दलों का स्मरण कर रहा है जो राम मंदिर निर्माण की मांग का समर्थन और विरोध किया करते थे। यह हतप्रभ करता है कि शिवसेना अयोध्या मामले में कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के रवैये को इतनी आसानी से भूलना पसंद कर रही है?

शिवसेना अपने सत्ता लोभ में खुद को बाला साहब ठाकरे की विरासत से ही अलग नहीं कर रही है, उस कांग्रेस के समक्ष नतमस्तक भी हो रही है जिसके विरोध से ही उसका जन्म हुआ था। नि:संदेह शिवसेना को सत्ता तो मिल जाएगी, लेकिन क्या उसके नेता खुद से और साथ ही अपने प्रतिबद्ध समर्थकों से आंख मिला पाएंगे? क्या उसकी राजनीति में नीति के लिए कोई स्थान नहीं? क्या अब वह कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाने के साथ-साथ समान नागरिक संहिता और ऐसे ही अन्य मसलों पर वही सब कुछ कहा करेगी जो कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी कहती आ रही हैैं?

शिवसेना इस आधार पर राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन से अलग हुई, क्योंकि भाजपा ने बारी-बारी से दोनों दलों के नेताओं को मुख्यमंत्री बनाने की उसकी मांग नहीं मानी, लेकिन उसे स्पष्ट करना चाहिए कि आखिर ऐसी कोई सहमति बनी ही कब थी? सवाल यह भी है कि क्या ढाई-ढाई साल तक दोनों दलों के नेताओं की ओर से मुख्यमंत्री पद संभालना एक-दूसरे के प्रति भरोसे का परिचायक होता? एक-दूसरे के प्रति अविश्वास से भरा यह फार्मूला तो नाकामी की ही कहानी लिखता। यह समझ आता है कि शिवसेना इससे कुंठित है कि वह भाजपा के मुकाबले कमजोर हो गई है, लेकिन क्या इसका उपाय धुर विरोधी दलों की गोद में बैठना हो सकता है? समझना कठिन है कि शिवसेना अनुभवहीन आदित्य ठाकरे को मुख्यमंत्री बनाने पर क्यों आमादा है? वैसे तो शिवसेना परिवारवाद की राजनीति का ही पोषण कर रही है, लेकिन अब तो वह लोक लाज त्यागकर घोर वंशवादी दल बन रही है।