हाल के भारतीय इतिहास की सबसे लोकप्रिय और सर्व स्वीकार्य राजनीतिक शख्सियत अटल बिहारी वाजपेयी का अवसान एक ऐसे राजनेता की विदाई है जो जननायक के साथ-साथ महानायक की छवि से लैस हो गए थे। उनके निधन के साथ ही नेताओं की वह पीढ़ी ओझल होती दिखती है जिसने खुद को नेता से राजनेता यानी स्टेट्समैन में तब्दील कर लिया था। बीमारी के कारण वह एक अर्से से राजनीतिक तौर निष्क्रिय थे, लेकिन वह अपनी उपस्थिति का आभास कराते थे। इसका कारण यही था कि वह राजनीतिक जीवन में सक्रिय लोगों के लिए एक प्रेरक उदाहरण बन गए थे। यह उनके विराट व्यक्तित्व का ही प्रभाव था कि उनकी मिसाल उनके विरोधी भी देते थे।

आज जब यह अकल्पनीय है कि दूसरे दलों के लोग किसी अन्य दल के शिखर पुरुष का उल्लेख उसकी प्रशंसा करते हुए करें तब अटल बिहारी वाजपेयी का जाना एक राष्ट्रीय क्षति है। इस क्षति का अहसास इसलिए कहीं गहरा है, क्योंकि उनके जैसे समावेशी राजनीति के शिल्पकार दुर्लभ हैं। वह कितने विरले थे, यह इससे प्रकट होता है कि आज उनके जैसा भरोसा पैदा करने वाला नेता दूर-दूर तक नहीं नजर आता। उनके यश की कीर्ति जिस तरह फैली उसकी मिसाल मिलना मुश्किल है। उनकी लोकप्रियता दलगत सीमाओं से परे पहुंच गई थी तो केवल इसलिए नहीं कि वह भाजपा के कद्दावर नेता थे और उनकी भाषण शैली सभी को मंत्रमुग्ध करती थी। इसके साथ-साथ वह उस राजनीति के वाहक भी थे जिसके कुछ मूल्य और मर्यादाएं थीं।

भाजपा के शीर्ष नेता के तौर पर वह स्पष्ट तौर पर यह कहते थे कि हम एक राजनीतिक दल हैं और सत्ता में आना चाहते हैं, लेकिन उन्होंने यह भी साबित किया कि सत्ता ही सब कुछ नहीं है। आखिर कौन भूल सकता है उस क्षण को जब उनकी सरकार एक वोट से गिरी थी? यह इसीलिए गिरी थी, क्योंकि तत्कालीन लोकसभा अध्यक्ष ने विरोधी दल के एक ऐसे सांसद को भी मतदान में भाग लेने की अनुमति दे दी थी जो मुख्यमंत्री पद की शपथ ले चुके थे। अटल बिहारी वाजपेयी ने इस फैसले का प्रतिवाद नहीं किया। इस प्रसंग के पहले उनकी 13 दिन की सरकार के विश्वास मत के समय उनका संबोधन कालजयी इसीलिए बना कि उन्होंने सत्ता के लिए किसी भी सीमा तक जाने वाली राजनीति की राह पकड़ने से इन्कार किया।

आम के साथ-साथ खास लोग उन्हें सुनने के लिए इसलिए लालायित नहीं रहते थे कि वह उस दौरान हास-परिहास भी करते थे। वह अपने संबोधन के जरिये लोगों के मर्म को भी छूते थे और नीतियों और नजरिये को नई धार भी देते थे। जब यह स्थापित मान्यता थी कि कश्मीर समस्या का समाधान तो संविधान के दायरे में ही संभव है तब उन्होंने कश्मीरियत, जम्हूरियत और इंसानियत का मंत्र दिया। अटल जी भले ही स्थापित परंपराओं को पुष्ट करने वाले राजनेता के तौर पर जाने जाते हों, लेकिन उन्होंने नए प्रतिमान गढ़े और नई परंपराओं की आधारशिला रखी।

उन्होंने न केवल गठबंधन राजनीति को बल और संबल प्रदान किया, बल्कि विदेश नीति को भी नया आयाम दिया। तमाम कटुता भुलाकर उन्होंने एक राजनेता की तरह व्यवहार किया और कारगिल के खलनायक परवेज मुशर्रफ को वार्ता की मेज पर आने का अवसर दिया। मुशर्रफ के बुलावे पर वह पाकिस्तान गए तो वहां से अमन का एक टुकड़ा लेकर ही लौटे। कमजोर समझी जाने वाली गठबंधन सरकारों का नेतृत्व करने के बावजूद उन्होंने देश को परमाणु हथियार संपन्न बनाया और पूरी दुनिया को दृढ़ इच्छाशक्ति और दूरदर्शिता से परिचित कराया। वह ऐसा इसीलिए कर सके, क्योंकि एक सांसद के तौर पर वह विदेश नीति के ऐसे विशेषज्ञ के रूप में जाने जाते थे जो भरी संसद में नेहरू जी से भी असहमति प्रकट करने में आगे रहते थे। यह तब था जब वह नेहरू को एक आदर्श नेता के तौर पर देखते थे।

उन्होंने यह दिखाया कि राजनीति में मतभेद किस तरह मनभेद तक नहीं जाने चाहिए। उनका एक अन्य बड़ा योगदान सुशासन को सार्थकता प्रदान करना रहा, जिसके लिए राष्ट्र उनका ऋणी रहेगा। उनका व्यक्तित्व महज एक लोकप्रिय राजनेता का ही नहीं, कवि हृदय वाले व्यक्ति का भी था। वह हिंदी प्रेमी ही नहीं हिंदी सेवी भी थे। उनकी विशिष्ट शैली की हिंदी ने उन्हें लोकप्रिय बनाया तो हिंदी को लोकप्रियता प्रदान करने का एक बड़ा श्रेय उन्हें जाता है। वह राजनीति में डूबे होने के बाद भी राजनीति से इतर गतिविधियों में मग्न दिख जाते थे।

पत्रकारिता से करियर शुरू करने वाले अटल बिहारी वाजपेयी राजनीति के शीर्ष पर पहुंचे तो इसीलिए कि वह देश की नब्ज पहचानते थे और यह भी जानते थे कि लोकतांत्रिक भारत का लक्ष्य क्या है और उसे कैसे हासिल किया जा सकता है? उनका जाना हमारे राष्ट्रीय जीवन में इसलिए एक बड़ा रिक्त स्थान कर गया कि अब उनकी जगह लेते हुए कोई नहीं दिखता। उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि यही हो सकती है कि वह जिन राजनीतिक और लोकतांत्रिक आदर्शो के प्रति समर्पित रहे उन्हें आगे बढ़कर अपनाया जाए। राजनीति और राष्ट्र का हित इसी में है और यही अजात शत्रु सरीखे अटल बिहारी वाजपेयी सदैव चाहते रहे।