कर्नाटक सरकार की ओर से किसानों के 34 हजार करोड़ रुपये के कर्ज माफ करने की घोषणा यही बता रही है कि कर्ज माफी ने किस तरह एक राजनीतिक बीमारी का रूप ले लिया है। यह एक ऐसी राजनीतिक बीमारी है जो बैैंकिंग व्यवस्था के साथ-साथ देश की आर्थिक सेहत पर भी बुरा असर डाल रही है। हालांकि अब तक के अनुभवों के साथ हर आर्थिक नियम यही गवाही दे रहा है कि किसानों के कर्ज माफ करने से न तो उनका भला होता है और न ही बैैंकों का, लेकिन एक के बाद एक राज्य ठीक यही काम कर रहे हैैं। वे यह जानते हुए भी कर्ज माफी की लोक-लुभावन नीति का परित्याग नहीं कर पा रहे कि इससे किसानों के हित नहीं सध रहे।

विडंबना यह है कि अगर राज्य सरकारें किसान कर्ज माफी से बचना भी चाहें तो कथित किसान हितैषी समूह और विपक्षी दल उन्हें किसान विरोधी करार देकर उन पर दबाव बनाते हैैं। पिछले कुछ समय से तो कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ही यह अभियान छेड़े हुए हैैं कि किसानों की समस्याओं का समाधान उनके कर्जे माफ करने में हैै।

कर्नाटक में बजट पेश होने के ठीक पहले उन्होंने यह उम्मीद जताई थी कि गठबंधन सरकार किसानों के कर्ज माफ करने के वायदे को पूरा करेगी। पता नहीं किस आधार पर उनका यह भी कहना था कि ऐसा होने से देश के किसानों में उम्मीद जगेगी? ध्यान रहे इसके पहले पूर्व मुख्यमंत्री सिद्दरमैया ने भी राहुल की पहल पर ही किसानों के कर्ज माफ किए थे। अब साझा सरकार चला रहे मुख्यमंत्री एचडी कुमारस्वामी ने इस आधार पर बजट में किसानों के दो-दो लाख रुपये के कर्ज माफ करने की घोषणा कर दी कि उन्होंने और साथ ही कांग्रेस ने अपने-अपने घोषणा पत्रों मेंइस आशय का वादा किया था।

यह ठीक है कि केंद्र सरकार कर्ज माफी की योजनाओं में भागीदार नहीं बन रही है, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि भाजपा शासित राज्य सरकारें भी कर्ज माफ करने की घोषणा करके खेती और किसानों का कथित तौर पर भला करने का संदेश देने में लगी हुई हैैं। यह तो समझ आता है कि किसी आपदा की स्थिति में किसानों के कर्ज माफ किए जाएं, लेकिन इसका कोई औचित्य नहीं कि रह-रह कर उनके कर्ज माफ होते रहें। राज्य सरकारें ऐसा करके बैैंकों को खोखला करने के साथ ही आर्थिक नियमों से खिलवाड़ भी कर रही हैैं।

इसी के साथ वे जाने-अनजाने ईमानदारी से कर्ज चुकाने वाले किसानों को यह गलत संदेश भी दे रही हैैं कि कर्ज चुकाने से बचने में ही समझदारी है। इस पर हैरत नहीं कि एक बड़ी संख्या में किसान यह मानकर चलने लगे हैैं कि देर-सबेर उनके कर्ज तो माफ हो ही जाएंगे। पता नहीं क्यों राज्य सरकारें यह समझने से इन्कार कर रही हैैं कि अधिकतर किसान खेती के लिए नहीं, बल्कि अपनी अन्य जरूरतों को पूरा करने के लिए कर्ज लेते हैैं? किसान हितैषी कहलाने के लोभ में वे यह भी नहीं देख पा रही हैैं कि कर्ज माफी उन समस्याओं का समाधान नहीं जिनसे कृषि और किसान दो-चार हैैं।