हाथरस कांड को लेकर विभिन्न संगठन संवेदना जताने के नाम पर जिस तरह राजनीतिक रोटियां सेंकने में लगे हुए हैं, वह केवल शर्मनाक ही नहीं, बल्कि जुगुप्सा जगाने वाला भी है। विचलित करने वाली इस घटना पर कितनी छिछली और सस्ती राजनीति हो सकती है, इसका उदाहरण हैं उन मुख्यमंत्रियों के भी नसीहत भरे बयान, जिनके अपने राज्य में ऐसी ही घटनाएं घटती रहती हैं। क्या जघन्य अपराध पर चिंता व्यक्त करने के लिए क्षुद्रता भरी राजनीति जरूरी है?

क्या यह काम बगैर राजनीतिक रोटियां सेंके नहीं हो सकता? आखिर हमारे राजनीतिक दल इस ताक में बैठे क्यों दिखते हैं कि विरोधी दल के राज्य में कोई गंभीर घटना घटे तो वे वहां दौड़ लगाएं? क्या इस तरह की गिद्ध राजनीति से समाज की उस मानसिकता का निदान हो जाएगा, जिसके चलते कमजोर तबके हिंसा का शिकार बनाए जाते हैं?

नि:संदेह हाथरस कांड की कठोरतम स्वर में निंदा होनी चाहिए, लेकिन यह बताने के लिए नहीं कि उत्तर प्रदेश को छोड़कर शेष देश में दलित समुदाय का मान-सम्मान हर तरह से सुरक्षित है या फिर दुष्कर्म की घटनाएं केवल इसी प्रदेश में घट रही हैं। अपनी राजनीति चमकाने के लिए ऐसा शरारत भरा संदेश देने वालों को राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े देखने चाहिए, जो यह बताते हैं कि दलितों के खिलाफ अपराध देश के सभी हिस्सों में हो रहे हैं। इन आंकड़ों के हिसाब से राजस्थान में दलितों के खिलाफ सबसे ज्यादा अपराध हो रहे हैं। क्या यह उचित नहीं होता कि हाथरस जाने की जिद पकड़े राहुल गांधी राजस्थान का भी दौरा करने की जरूरत समझते?

दलितों के खिलाफ अपराध को दलगत राजनीति के चश्मे से देखने वाले दलित समुदाय के हितैषी नहीं हो सकते। आखिर क्या कारण है कि उत्तर प्रदेश का शासन-प्रशासन तो सबके निशाने पर है, लेकिन उस दलित और स्त्री विरोधी मानसिकता के खिलाफ मुश्किल से ही कोई आवाज सुनाई दे रही है, जो हाथरस सरीखी घटनाओं के लिए जिम्मेदार है?

यह बहुत ही खराब चलन है कि राजनीतिक दल अपने-अपने संकीर्ण एजेंडे के हिसाब से दलितों के खिलाफ होने वाले अपराध पर सड़क पर उतरना पसंद करते हैं। इससे भी खराब बात यह है कि अब यही काम कुछ सामाजिक संगठन भी करने लगे हैं। इस तरह की भोंडी राजनीति से तो दलित समाज अपने को ठगा हुआ ही महसूस करेगा।

क्या दलितों तक यह संदेश सच में जा रहा होगा कि हाथरस कांड को लेकर सड़कों पर उतरने वालों का मकसद उन्हें संबल देना और उन सामाजिक परिस्थितियों का निवारण करना भी है, जिनके चलते वे प्रताड़ित होते हैं? एक गंभीर समस्या पर सस्ती राजनीति तो दलितों के साथ छल ही है।