उत्तर प्रदेश और बिहार में गंगा नदी में शव मिलने का सिलसिला कायम रहना आघातकारी है। चूंकि बड़ी संख्या में शव मिले हैं, इसलिए यह अंदेशा होता है कि कहीं ये उनके तो नहीं, जो कोरोना का शिकार हुए? यह एक तथ्य है कि कोरोना की दूसरी लहर गांवों तक पहुंच गई है और कुछ इलाकों में कहर भी ढा रही है, लेकिन यदि यह मान भी लिया जाए कि गंगा में मिले शव कोरोना का शिकार हुए लोगों के हैं, तब भी यह समझना कठिन है कि आखिर उन्हें नदी में बहाने की क्या जरूरत थी? क्या शव इसलिए बहाए गए, क्योंकि उनका विधिवत दाह संस्कार करना मुश्किल था या फिर गांवों के गरीब लोग अपने स्वजनों के अंतिम संस्कार का खर्च वहन नहीं कर सकते थे? यदि ऐसा कुछ था तो फिर ग्राम प्रधान, पंचायत प्रमुख और ग्रामीण क्षेत्र के अन्य जन प्रतिनिधियों के साथ संबंधित प्रशासन क्या कर रहा था? कहां थे वे लोग, जिन पर नदियों और खासकर गंगा की साफ-सफाई की निगरानी का दायित्व है? आखिर नदियों की पूज्य मानने वाले ग्रामीणों के मन में यह क्यों नहीं कौंधा कि वे इस तरह शव बहाकर घोर अनर्थ कर रहे हैं और इससे उनकी और उनके क्षेत्र के साथ देश की भी बदनामी होगी? क्या यह माना जाए कि ग्रामीण इलाकों में एक वर्ग ऐसा है, जो अभी भी नदियों की शुद्धता की परवाह नहीं करता? ये वे गंभीर सवाल हैं, जिनका जवाब तलाशा ही जाना चाहिए।

बेहतर हो कि इसकी कोई जांच हो कि किन कारणों से गंगा में शव बहाए गए? इसी के साथ इसकी कोई ठोस व्यवस्था होनी चाहिए कि भविष्य में कोई भी इस तरह नदियों से खिलवाड़ न कर सके। यह ठीक है कि कुछ ग्रामीण इलाकों में शवों को नदियों में बहाने या फिर उनके तटों पर दफनाने की परंपरा है, लेकिन कम से कम अब तो सबको यह समझ आ जाना चाहिए कि यह एक खराब और बेहद हानिकारक परंपरा है। इसे हर हाल में रोका जाना चाहिए। एक ऐसे समय और भी, जब नदियों को दूषित होने से बचाने के लिए व्यापक अभियान चलाए जा रहे हैं। परंपराओं या फिर मजबूरी के नाम पर नदियों को दूषित नहीं होने दिया जा सकता। बेहतर हो कि जिस तरह उत्तर प्रदेश और बिहार की सरकारें चेतीं, उसी तरह अन्य राज्य सरकारें भी चेतें, क्योंकि इसकी आशंका है कि इस तरह का काम अन्य जगह भी हो सकता है। राज्यों को यह समझना होगा कि महामारी से लड़ने के साथ ही इसकी भी चिंता करनी है कि उसकी चपेट में आए लोगों के अंतिम संस्कार कोविड प्रोटोकॉल के तहत ही हों।