बाढ़ और बारिश के चलते केरल के हालात किस कदर खराब हैं, इसका पता इससे भी चल रहा है कि गृहमंत्री राजनाथ सिंह के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी इस राज्य का दौरा करने पहुंचे। केरल में जान-माल की क्षति के आंकड़े यही बयान कर रहे हैं कि इस राज्य में बाढ़ के कारण आया संकट राष्ट्रीय आपदा का रूप ले चुका है। शायद यही कारण है कि एक ओर जहां संयुक्त राष्ट्र महासचिव ने इस समुद्र तटीय भारतीय राज्य में हुई जनहानि पर दुख जताया वहीं संयुक्त अरब अमीरात के प्रधानमंत्री ने यहां के बाढ़ प्रभावितों की मदद के लिए पहल की। यह समय की मांग है कि केंद्र सरकार के साथ-साथ अन्य राज्य सरकारें अपनी साम‌र्थ्य भर केरल की सहायता के लिए आगे आएं।

यह संतोष की बात है कि वे ऐसा कर रही हैं, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि ऐसे मौके पर धनराशि से ज्यादा जरूरत राहत और बचाव सामग्री जरूरतमंद लोगों तक पहुंचाने की होती है। हालांकि हमारे सुरक्षा बल इस कठिन काम को करने में सक्षम हैं, लेकिन जब बाढ़ और बारिश के चलते भूस्खलन का सिलसिला कायम हो तो प्रभावित लोगों को सहायता पहुंचाना आसान नहीं होता। यह चिंताजनक है कि सेना और सुरक्षा बलों की हर संभव कोशिश के बाद भी केरल में जान-माल की क्षति का आंकड़ा कम होने का नाम नहीं ले रहा है। इसके पहले केरल में ऐसी खतरनाक बाढ़ करीब सौ साल पहले आई थी। उसकी याद शायद ही किसी को हो, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि पर्यावरण के जानकार और साथ ही जल, जंगल, जमीन की चिंता करने वाले इसे लेकर लगातार चेतावनी देते रहे कि केरल अपने भविष्य से खेल रहा है। दुर्भाग्य से इस तरह की चेतावनी की उपेक्षा ही की गई-ठीक वैसे ही जैसे हमारे अन्य राज्य करते हैं।

केरल के हालात पांच साल पहले उत्तराखंड में बाढ़ से उपजी भयावह स्थितियों का स्मरण करा रहे हैं। यह मानने के अच्छे-भले कारण हैं कि जैसे उत्तराखंड ने नियम-कानून को धता बताकर किए जाने वाले कामों की अनदेखी की वैसा ही केरल ने भी किया। नतीजा सामने है। केरल के नेताओं और नौकरशाहों को इसके लिए जवाबदेह बनाया जाना चाहिए कि आखिर उन्होंने उस रपट को खारिज क्यों किया जिसमें पर्यावरण की दृष्टि से संवेदनशील इलाकों में खनन और निर्माण कार्य रोकने को कहा गया था? नि:संदेह कम समय में जरूरत से ज्यादा बारिश होने के कारण केरल में उपजे हालात को प्राकृतिक आपदा की ही संज्ञा दी जाएगी, लेकिन इस आपदा के लिए एक बड़ी हद तक यहां का शासन-प्रशासन भी जिम्मेदार है।

यदि विकास को अंधाधुंध विकास का पर्याय बना दिया जाएगा और पर्यावरण के साथ पारिस्थितिकी तंत्र की परवाह नहीं की जाएगी तो फिर उसके दुष्परिणामों से बचना मुश्किल ही होगा। यह ठीक नहीं कि आज जब ग्लोबल वार्मिग के कारण दुनिया भर में बहुत कम या ज्यादा बारिश होनी लगी है तब हमारे नीति-नियंता न्यूनतम सजगता भी नहीं दिखा रहे हैं। इससे भी खराब बात यह है कि वे अवैध-अनियोजित निर्माण अथवा खनन को रोकने के अदालती आदेश-निर्देश का पालन मुश्किल से ही करते हैं।