युवा कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष केशव चंद यादव के इस्तीफे के बाद जिस तरह पार्टी के महासचिव ज्योतिरादित्य सिंधिया और मुंबई कांग्रेस के अध्यक्ष मिलिंद देवड़ा ने अपने पद छोड़े उसके बाद इस्तीफों का सिलसिला और तेज होता दिखे तो हैरानी नहीं। इसके पहले भी इस्तीफों का एक दौर देखने को मिल चुका है। करीब एक सप्ताह पहले मध्य प्रदेश कांग्रेस के महासचिव समेत विभिन्न राज्यों के करीब 150 कांग्रेसी नेताओं ने अपने पद त्याग दिए थे। इसके कुछ दिनों बाद राहुल गांधी ने यह कहते हुए कांग्रेस अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दिया कि अब अन्य नेताओं की यह जिम्मेदारी है कि वे अपनी जवाबदेही लें।

कहना कठिन है कि ज्योतिरादित्य सिंधिया और मिलिंद देवड़ा के इस्तीफे राहुल गांधी की इसी अपील का परिणाम हैं या नहीं? यदि राहुल गांधी यह चाह रहे हैं कि पार्टी के सभी बड़े नेता अपने पद छोड़ दें तो फिर यह समझना कठिन है कि अभी तक दो-तीन बड़े नेताओं के इस्तीफे ही क्यों सामने आए हैं? ज्योतिरादित्य सिंधिया के इस्तीफे के बाद एक सवाल यह भी है कि क्या उन्हीं की तरह कांग्रेस महासचिव एवं पूर्वी उत्तर प्रदेश की प्रभारी प्रियंका गांधी वाड्रा भी अपने पद का त्याग करेंगी? आखिर वह भी तो पूर्वी उत्तर प्रदेश में उसी तरह नाकाम रहीं जिस तरह ज्योतिरादित्य सिंधिया पश्चिमी उत्तर प्रदेश में रहे।

इसमें संदेह है कि इस्तीफों का यह दौर कांग्रेस को कोई राह दिखा पाएगा, क्योंकि किसी को नहीं पता कि ये इस्तीफे क्यों दिए जा रहे हैं? अगर इरादा कामराज सरीखी योजना को दोहराना है तो फिलहाल उसकी पूर्ति भी होती नहीं दिखती। जहां कामराज योजना का मकसद साफ था वहीं आज यह जानना कठिन है कि राहुल और अन्य दिग्गज कांग्रेसी नेता चाह क्या रहे हैं? जो पता चल रहा है वह यह कि कांग्रेस उन कारणों पर गौर करने के लिए तैयार नहीं जिनके चलते उसे करारी हार का सामना करना पड़ा।

बीते दिनों राहुल गांधी ने अपने इस्तीफे की घोषणा करते हुए जो पत्र सार्वजनिक किया वह यही कहता है कि उन्हें अपनी गलतियों का रत्ती भर भी अहसास नहीं। यदि कांग्रेस के अन्य नेता भी राहुल गांधी के इस मत से सहमत हैं कि सभी संस्थाओं के निष्पक्ष न रहने और उन पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का कब्जा हो जाने के कारण ही पार्टी को पराजय का सामना करना पड़ा तो इसका मतलब है कि उन्हें या तो जमीनी हकीकत की जानकारी नहीं या फिर वे सच्चाई को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं।

यदि कांग्रेस को अपने हितों की तनिक भी परवाह है तो उसके नेताओं को इस सच से दो-चार होना ही होगा कि लोकसभा चुनावों में पराजय का कारण पार्टी की रीति-नीति ही थी। कोई व्यक्ति अथवा संगठन आघात लगने के बाद तभी सही दिशा में आगे बढ़ सकता है जब उसे अपनी भूल का अहसास हो जाए और वह उसे दूर करने के लिए प्रतिबद्ध नजर आए। यह निराशाजनक है कि कांग्रेस ऐसा कुछ भी आभास नहीं करा रही है। वास्तव में इसी कारण उसकी दिशाहीनता का दौर खत्म होता नजर नहीं आ रहा है। बेहतर हो कि वह पहले अपनी दिशा तलाशे।