एक ऐसे समय जब कांग्रेस अंदर-बाहर से समस्याओं से घिरी हुई है, तब वह किस तरह कामचलाऊ रवैया अपनाए हुए है, इसका उदाहरण है विगत दिवस हुई सलाहकार समिति की बैठक। सोनिया गांधी की मदद के लिए बनाई गई इस समिति की बैठक में न तो बिहार में हार को लेकर कोई चर्चा हुई और न ही वरिष्ठ नेता कपिल सिब्बल की ओर से उठाए गए मसलों की। इसमें चर्चा हुई कृषि कानूनों के खिलाफ किसानों के समर्थन में चलाए जा रहे आंदोलन की आगे की रूपरेखा पर। ऐसा यह जानते हुए भी किया गया कि यह आंदोलन केवल पंजाब तक सिमट कर रह गया है और वहां भी वह राज्य की जनता के लिए बोझ साबित हो रहा है।

क्या यह हैरानी की बात नहीं कि इस समिति को और किसी मसले पर चर्चा सूझी ही नहीं? यह और कुछ नहीं, उन मसलों से जानबूझकर मुंह चुराने की प्रवृत्ति का प्रदर्शन ही है, जो कांग्रेस के लिए संकट बन रहे हैं। यदि यह समिति इस आधार पर बिहार में मिली पराजय पर चर्चा नहीं करना चाहती थी कि वहां पार्टी का ढांचा बहुत मजबूत नहीं था तो फिर कम से कम उसे मध्य प्रदेश के उपचुनावों की हार पर चिंतन-मनन करना चाहिए था, जहां चंद माह पहले तक पार्टी सत्ता में ही थी। यह भी हास्यास्पद है कि इस बैठक में कपिल सिब्बल की ओर से उठाए गए सवालों पर तो गौर करने से बचा गया, लेकिन उन्हें खरी-खोटी सुनाने से कोई परहेज नहीं किया गया।

यदि कांग्रेस यह समझ रही है कि टाल-मटोल वाले रवैये से वह अपनी समस्याओं को दूर करने में सक्षम होगी तो ऐसा होने वाला नहीं है। किसी भी संगठन को अपनी समस्याओं को हल करने में तब सफलता मिलती है, जब पहले यह स्वीकार किया जाता है कि वह उनसे दो-चार है। कांग्रेस तो यह प्रतीति करा रही है कि पार्टी में सब कुछ ठीक है। उसके नेताओं की ओर से यह भी माहौल बनाया जा रहा है कि यदि राहुल गांधी एक बार फिर पार्टी अध्यक्ष बन जाएं तो सब ठीक हो जाएगा।

समस्या केवल यह नहीं है कि कांग्रेस दिन-प्रतिदिन कमजोर होती जा रही है, बल्कि यह भी है कि वह अपना राष्ट्रवादी चरित्र और राष्ट्रीय स्वरूप भी खोती जा रही है। यह इसलिए ठीक नहीं, क्योंकि कोई भी क्षेत्रीय राजनीतिक दल ऐसा नहीं, जो उसकी भरपाई कर सके। एक तरह से कांग्रेस की कमजोरी भारतीय लोकतंत्र को कमजोर करने का काम कर रही है। कांग्रेस को यह समझ आए तो बेहतर कि उसका राजनीतिक रूप से सशक्त होना न केवल उसके, बल्कि भारतीय लोकतंत्र के हित में है।