इस पर आश्चर्य नहीं कि कर्नाटक एक बार फिर राजनीतिक अस्थिरता से घिरता दिख रहा है। इसका अंदेशा तभी उभर आया था जब विधानसभा चुनाव बाद सीटों के मामले में तीसरे नंबर की पार्टी जनता दल-एस ने दूसरे नंबर पर रही कांग्रेस के समर्थन से सरकार बनाई थी। हालांकि पहले नंबर पर आई और साधारण बहुमत से दूर रही भाजपा ने भी जोड़-तोड़ से सरकार बनाने की कोशिश की थी, लेकिन वह सफल नहीं हो पाई। वास्तव में जब जनादेश निर्णायक न हो तो ऐसा ही होता है। सरकार बनाने के लिए राजनीतिक दलों को या तो जोड़-तोड़ करनी पड़ती है या फिर परस्पर विरोधी दलों को एक साथ आना पड़ता है। दोनों ही स्थितियों में जनादेश का निरादर होता है।

जैसा कर्नाटक में हुआ वैसा ही कई अन्य राज्यों में भी हो चुका है। सच तो यह है कि केंद्र में भी ऐसी स्थिति आ चुकी है। बावजूद इसके इस सवाल का जवाब खोजने की कहीं कोई कोशिश नहीं हो रही है कि त्रिशंकु जनादेश की स्थिति में साफ-सुथरे तरीके से सरकार का गठन कैसे किया जाए ताकि राजनीतिक अस्थिरता से मुक्ति मिलने के साथ ही आयाराम-गयाराम की राजनीति को पनपने का अवसर न मिले। कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि निर्णायक जनादेश के अभाव में सरकार गठन का कोई तर्कसंगत उपाय इसीलिए नहीं खोजा जा रहा ताकि जोड़-तोड़ से सरकार बनाने के अवसर बने रहें। इसका दुष्परिणाम केवल यह नहीं है कि सरकारें राजनीतिक अस्थिरता से घिरी रहती हैं और वे विकास एवं सुशासन पर बुरा असर डालती हैं, बल्कि यह भी है कि राजनीतिक मौकापरस्ती और सौदेबाजी को बल मिलता है। आमतौर पर यह सौदेबाजी भ्रष्टाचार और कुशासन को फलने-फूलने का ही मौका देती है। शायद राजनीतिक दलों को इसमें ही अपना हित दिखता है।

कर्नाटक की मौजूदा सरकार कांग्रेस के साथ ही कुछ निर्दलीय विधायकों के समर्थन से चल रही है। शायद ही किसी मतदाता ने ऐसी सरकार की आकांक्षा की हो या फिर इस हेतु वोट दिया हो। अभी तक तो जद-एस और कांग्रेस में खटपट की ही खबरें आ रही थीं, लेकिन अब दो निर्दलीय विधायकों के इस सरकार से अलग होने की भी खबर है।

एक खबर यह भी है कि कर्नाटक के भाजपा विधायकों ने गुरुग्राम में डेरा जमा लिया है। कर्नाटक के मुख्यमंत्री की मानें तो उनकी सरकार को कोई खतरा नहीं और वहां के भाजपा नेताओं पर यकीन करें तो वे चुनाव की रणनीति बनाने के लिए गुरुग्राम आए हैं। यह मानने के अच्छे-भले कारण हैं कि सच कुछ और ही हो सकता है। अगर कर्नाटक में नए सिरे से राजनीतिक समीकरण बनते-बिगड़ते हैं और उसके फलस्वरूप वहां नई सरकार बनती है तो इससे जोड़-तोड़ की राजनीति को ही बल मिलेगा। इस नई सरकार को भी राजनीतिक अस्थिरता का सामना करना पड़ सकता है। इस सबसे अगर कोई घाटे में रहेगा तो वह होगी कर्नाटक की जनता।

यदि राजनीतिक दलों को जनता के हितों की तनिक भी परवाह है तो उन्हें गठबंधन राजनीति के कायदे-कानून बनाने और त्रिशंकु जनादेश की हालत में एक सक्षम सरकार बनाने के तौर-तरीके तय करने के लिए आगे आना चाहिए।