आयुध सामग्री के मामले में आत्मनिर्भर बनने के लिए रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह की ओर से की गई यह घोषणा समय की मांग थी कि कुछ हथियारों और रक्षा उपकरणों के आयात पर रोक लगाकर उन्हें देश में ही तैयार किया जाएगा। सही दिशा में उठाए गए इस कदम का स्वागत होना चाहिए। जब हर क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनने की पहल की जा रही है तब फिर यह आवश्यक है कि भारत अपनी जरूरत की रक्षा सामग्री का उत्पादन खुद करे। ध्यान रहे आज के युग में किसी देश की महत्ता का आकलन इससे भी होता है कि वह अपनी जरूरत की रक्षा सामग्री का निर्माण स्वयं करता है या नहीं?

रक्षा मंत्री की ओर से की गई घोषणा के अनुसार करीब सौ हथियारों और रक्षा उपकरणों का निर्माण अब देश में ही किया जाएगा। इस फैसले से हर चीज का आयात करने की प्रवृत्ति पर लगाम लगने के साथ ही अगले छह-सात साल में हथियार और रक्षा उपकरण बनाने वाले स्वदेशी उद्योग को करीब चार लाख करोड़ रुपये के ठेके मिलेंगे। इससे इस उद्योग को मजबूती मिलेगी और भारत को रक्षा सामग्री के आयात में कहीं कम विदेशी मुद्रा खर्च करनी पड़ेगी, लेकिन ऐसा तभी होगा जब स्वदेशी उद्योगों की ओर से तैयार रक्षा सामग्री गुणवत्ता के मानकों पर खरी उतरेगी। बेहतर होगा कि यह हर स्तर पर सुनिश्चित किया जाए कि तीनों सेनाओं की जरूरत पूरी करने के लिए देश में तैयार होने वाले हथियारों और उपकरणों की गुणवत्ता से किसी तरह का कोई समझौता न होने पाए। इसकी अनदेखी नहीं की जानी चाहिए कि आर्डिनेंस फैक्ट्रियों की ओर से तैयार रक्षा सामग्री को लेकर गुणवत्ता संबंधी सवाल उठते रहे हैं।

सेनाओं को केवल आधुनिक रक्षा सामग्री से लैस करना ही जरूरी नहीं होता। यह भी आवश्यक होता है कि उनकी मांग समय रहते पूरी हो। चूंकि इस मामले में अतीत के अनुभव अच्छे नहीं रहे हैं इसलिए जरूरी सबक समय रहते सीखे जाने चाहिए। इसी क्रम में उन कारणों का निवारण भी प्राथमिकता के आधार पर किया जाना चाहिए जिनके चलते हमारी आर्डिनेंस फैक्ट्रियों का वक्त के हिसाब से आधुनिकीकरण नहीं हो सका।

यह भी अच्छा नहीं हुआ कि निजी क्षेत्र को प्रोत्साहन देकर देश में ही रक्षा सामग्री के उत्पादन को प्राथमिकता नहीं दी जा सकी। अब जब ऐसा किया जा रहा है तब इस पर भी ध्यान देना होगा कि देश में तैयार आयुध सामग्री ऐसी हो जिसकी मांग अंतरराष्ट्रीय बाजार में भी हो। यह हैरानी की बात है कि राजनाथ सिंह की ओर से की गई एक महत्वपूर्ण घोषणा कांग्रेसी नेता चिदंबरम को महज शब्दजाल नजर आई। उनकी आलोचना का औचित्य समझना कठिन है।