झारखंड में हार के साथ ही भाजपा के हाथ से एक और राज्य निकल गया। इसके पहले मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में उसे पराजय का सामना करना पड़ा था। हाल में उसने हरियाणा में जैसे-तैसे सरकार अवश्य बना ली, लेकिन महाराष्ट्र में शिवसेना की बगावत से उसके खाते से एक और राज्य कम हो गया। इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि बीते दो वर्ष में विधानसभा चुनावों में भाजपा का प्रदर्शन उसकी उम्मीदों के अनुकूल नहीं रहा है। गुजरात में उसे जैसे-तैसे बहुमत मिला था और कर्नाटक में वह सत्ता से चंद कदम पहले ही ठिठक गई थी। हालांकि बाद में वहां उसने येन-केन प्रकारेण सरकार बना ली।

झारखंड में मुख्यमंत्री रघुवर दास पार्टी के विद्रोही उम्मीदवार सरयू राय से जिस तरह पिछड़ गए उससे भाजपा को कहीं अधिक चिंतित होना चाहिए और इस पर तो खास तौर पर गौर करना चाहिए कि राज्यों के चुनाव राष्ट्रीय मुद्दों अथवा राष्ट्रीय नेता के बलबूते नहीं जीते जा सकते। नि:संदेह राष्ट्रीय नेता और मसले एक हद तक असर करते हैैं, लेकिन विधानसभा चुनावों में तो मतदाता इस पर ध्यान देते हैैं कि उनकी आकांक्षाएं पूरी करने में कौन समर्थ है? प्रधानमंत्री मोदी को सुनने-सराहने वाले यह भली तरह जानते हैैं कि राज्य का शासन तो किसी और को ही चलाना है।

यह सही है कि झारखंड के गठन के बाद पहली बार रघुवर दास के रूप में किसी मुख्यमंत्री ने पांच साल तक सरकार चलाई, लेकिन नतीजे यही बता रहे हैैं कि जनता उन्हें एक और मौका देने को तैयार नहीं थी। इसकी एक वजह तो उम्मीदों का पूरा न होना ही हो सकती है और दूसरी, पार्टी के अंदर गुटबाजी और असंतोष। शायद इसी का नतीजा रहा कि एक बड़ी संख्या में भाजपा नेता विद्रोही उम्मीदवार के रूप में चुनाव में उतरे। रही-सही कसर इससे पूरी हो गई कि भाजपा अपने गठबंधन के सहयोगी संग मिलकर चुनाव नहीं लड़ सकी।

झारखंड मुक्ति मोर्चा कांग्रेस और राजद से मिलकर भाजपा की राह रोकने में सफल रहा तो केवल इसलिए नहीं कि उसके नेतृत्व वाला गठबंधन कहीं अधिक मजबूत था, बल्कि इसलिए भी कि वह लोगों की नाराजगी का फायदा उठाने में सक्षम रहा। इसी के चलते भाजपा के कई मंत्री भी चुनाव हार गए। बेहतर हो कि भाजपा नेतृत्व इसकी तह में जाए कि राज्यों में उसके मंत्री इतने अक्षम क्यों साबित हो रहे हैैं? उसे राज्यों में शासन-प्रशासन के कामकाज में बुनियादी बदलाव लाने के साथ ही इस पर भी ध्यान देना होगा कि असंतोष एवं गुटबाजी से कैसे बचा जाए? हार पर चिंतन का महत्व तभी है जब पार्टी की कार्यशैली में बदलाव भी दिखे।