चुनाव वाले राज्यों में प्रत्याशियों के नामों की घोषणा होते ही कई स्थानों से उनके विरोध की खबरें आने लगी हैं। कहीं लोगों की ओर से विरोध किया जा रहा है तो कहीं कार्यकर्ताओं की ओर से। कहीं-कहीं तो टिकट के दावेदार ही विद्रोह की भूमिका में आ गए हैं। टिकट न मिलने से नाराज नेताओं के पार्टी छोड़ने की भी खबरें आने लगी हैं। कुछ मामले ऐसे भी हैं जिनमें दूसरे दल में गए नेता टिकट पाने से वंचित रह गए तो किसी अन्य दल में जाने की जुगत भिड़ा रहे हैं। कुछ नेता ऐसे भी हैं जो उम्मीदवार न बन पाने के कारण निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में चुनाव मैदान में उतरने की ताल ठोंक कर रहे हैं। आने वाले दिनों में उम्मीदवारी से वंचित नेता अथवा उनके समर्थक अपने-अपने दल के दफ्तरों के सामने धरना-प्रदर्शन करते और पैसे देकर टिकट बेचने का आरोप लगाते दिखें तो हैरानी नहीं। वास्तव में यह सब कोई नई बात नहीं। प्रत्येक चुनाव के मौके पर ऐसा ही देखने को मिलता है।

शायद ही कोई दल ऐसा हो, जो टिकट के दावेदारों की नाराजगी से दो-चार न होता हो। कहने को तो हर दल यह कहता है कि उसके पास प्रत्याशियों के चयन की एक तय प्रक्रिया है और वे व्यापक विचार-विमर्श के बाद ही उनके नाम घोषित करते हैं, लेकिन यह सच नहीं और इसका पता इससे चलता है कि कई बार चार-छह दिन पहले दल विशेष की सदस्यता ग्रहण करने वाले गैर राजनीतिक लोग भी प्रत्याशी के रूप में कूद पड़ते हैं। इनमें या तो नौकरशाह होते हैं या फिर नेताओं के सगे-संबंधी अथवा पैसे के बल पर चुनाव जीतने की क्षमता रखने वाले। यह सब इसीलिए होता है, क्योंकि राजनीतिक दलों ने प्रत्याशी चयन की कोई पारदर्शी, न्यायसंगत और लोकतांत्रिक व्यवस्था नहीं अपना रखी है। हालांकि इसके दुष्परिणाम राजनीतिक दल ही विद्रोह, भितरघात आदि के रूप में भोगते हैं, लेकिन वे प्रत्याशी चयन की कोई नीर-क्षीर व्यवस्था बनाने के लिए तैयार नहीं। क्या इससे बड़ी विडंबना और कोई हो सकती है कि लोकतंत्र में प्रत्याशियों के चयन में लोक की कोई भूमिका ही न हो? इस भूमिका के अभाव में भी नोटा का इस्तेमाल बढ़ रहा है। अच्छा होगा कि राजनीतिक दल यह समझें कि मनमाने तरीके से प्रत्याशियों का चयन कर उन्हें जनता पर थोपना लोकतांत्रिक मूल्यों को कमजोर करने वाला काम है।