मोदी है तो मुमकिन है नारे के साथ सत्ता में लौटी मोदी सरकार ने वह कर दिखाया जिसका सपना देश न जाने कब से देख रहा था। आजादी के बाद जम्मू-कश्मीर को अनुच्छेद 370 के जरिये विशेष अधिकारों से लैस करने की ऐतिहासिक गलती को ठीक करने के लिए जिस राजनीतिक इच्छाशक्ति की जरूरत थी उसका प्रदर्शन किया जाना समय की मांग थी। यह मांग इसलिए और बढ़ गई थी, क्योंकि मोदी सरकार प्रचंड बहुमत से सत्ता में लौटी थी और उसने यह वादा भी कर रखा था कि वह अनुच्छेद 370 को हटाएगी। इसके अतिरिक्त इस सच की भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि यह अनुच्छेद अलगाववाद का जरिया बन गया था।

बीते कुछ दशकों में कश्मीर के स्वार्थी नेताओं और पाकिस्तानपरस्त तत्वों ने कश्मीर घाटी में एक ऐसा माहौल बना दिया था कि वहां का एक वर्ग यह मानने लगा था कि वह शेष देश से इतर है। धीरे-धीरे यह भाव न केवल अलगाववाद में तब्दील हो रहा था, बल्कि कश्मीर की राजनीतिक समस्या को खतरनाक तरीके से मजहबी आवरण भी धारण कर रही थी। कश्मीर के विशेष अधिकारों को उसकी आजादी की बेतुकी मांग का जरिया बनाने की जैसी कोशिश हो रही थी और पाकिस्तान जिस तरह आग में घी डालने का काम कर रहा था उसे देखते हुए यह आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य हो गया था कि कोई ठोस फैसला लिया जाए।

यह स्वागतयोग्य है कि मोदी सरकार ने ऐसा फैसला लेने का साहस दिखाया। अपने साहसिक फैसले के जरिये मोदी सरकार ने केवल भाजपा की पुरानी मांग को ही पूरा नहीं किया, बल्कि कश्मीर के हालात ठीक करने के लिए लीक से हटकर एक बड़ी पहल भी की।

कश्मीर पर यह बड़ी पहल अगस्त में आई एक और क्रांति की तरह है, क्योंकि अनुच्छेद 370 हटाने के साथ ही जम्मू-कश्मीर का नए सिरे से गठन करने की दिशा में भी कदम बढ़ा दिए गए हैैं। अब लद्दाख जम्मू-कश्मीर से अलग होकर बिना विधानसभा वाला केंद्र शासित प्रदेश बनेगा और जम्मू-कश्मीर विधानसभा युक्त केंद्र शासित प्रांत। इसके सकारात्मक नतीजे मिलने ही चाहिए।

मोदी सरकार ने अलगाववाद को पोषित करने वाले अनुच्छेद 370 को समाप्त करने के साथ ही विभेदकारी 35-ए को निष्प्रभावी करके जम्मू-कश्मीर कोे राष्ट्र की मुख्यधारा में लाने की दिशा में तो ठोस कदम उठाया ही, राष्ट्रीय एकीकरण को भी नए सिरे से बल प्रदान किया। एक निशान-एक विधान की भावना वाले इस फैसले से केवल कश्मीर का समुचित विकास ही सुनिश्चित नहीं होगा, बल्कि कश्मीर के आम लोगों को शेष भारत से जुड़ने का अवसर भी मिलेगा। सबसे बड़ी बात यह है कि वे खुद को पहले भारतीय मानना शुरू करेंगे।

इस पर हैरानी नहीं कि अनुच्छेद 370 को हटाने और जम्मू-कश्मीर के पुनर्गठन के फैसले का कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस, समेत कुछ अन्य दलों ने विरोध किया, लेकिन इन दलों के नेताओं की ओर से ऐसी कोई दलील नहीं दी जा सकी जिसे दमदार कहा जा सके। यह आश्चर्यजनक है कि विपक्षी दल ऐसी कोई दलील का इंतजाम तब नहीं कर सके जब वे यह अच्छी तरह जान रहे थे कि मोदी सरकार कश्मीर पर कोई बड़ा फैसला लेने की तैयारी में है और यह फैसला अनुच्छेद 370 और 35-ए से संबंधित हो सकता है।

यह सही है कि लोकतंत्र में विरोध के लिए विरोध की राजनीति भी होती है, लेकिन इसका कोई औचित्य नहीं कि राष्ट्र की दिशा-दशा तय करने वाले किसी ऐतिहासिक फैसले पर भी ऐसी राजनीति की जाए। समझना कठिन है कि आखिर सरकार के फैसले का विरोध कर रहे राजनीतिक दल किस आधार पर अनुच्छेद 370 को पसंद कर रहे हैैं? क्या वे इससे अनजान हैैं कि यह विषम परिस्थितियों में किया गया एक अस्थायी प्रावधान था? क्या वे इससे परिचित नहीं कि अनुच्छेद 370 के साथ 35-ए ने किस तरह आम कश्मीरियों और खासकर वहां के वंचित, दलित और पिछड़े तबकों के अधिकारों पर कुठाराघात किया है?

अगर इन विभेदकारी अनुच्छेदों ने किसी का हित किया है तो केवल कश्मीर के मुट्ठी भर नेताओं का। इससे बड़ी विडंबना और कोई नहीं कि जो अनुच्छेद अस्थायी था उसे कश्मीर को शेष भारत से जोड़ने वाले तत्व के रूप में पेश किया जा रहा था। कश्मीर के भारत से जुड़ाव के लिए किसी अस्थायी संवैधानिक व्यवस्था को आधार बताना देश की हजारों बरस पुरानी सांस्कृतिक विरासत की अनदेखी के अतिरिक्त और कुछ नहीं।

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