फ्रांस से पांच राफेल लड़ाकू विमानों का आगमन केवल इसलिए महत्वपूर्ण नहीं है कि उनसे हमारी वायुसेना की मारक क्षमता में उल्लेखनीय वृद्धि होने वाली है, बल्कि इसलिए भी है कि वे ऐसे समय आ रहे हैं जब चीन अतिक्रमणकारी और अड़ियल रुख अपनाए हुए है। वास्तव में इसी कारण राफेल विमानों को लेकर इतनी अधिक चर्चा हो रही है। नि:संदेह भारतीय वायुसेना की ताकत तब बढ़ेगी जब सभी 36 राफेल विमान उसके बेड़े में शामिल होंगे, लेकिन इतना तो है ही कि ये पांच विमान भी हमारी सेना का मनोबल बढ़ाने का काम करेंगे, क्योंकि ये सबसे उन्नत लड़ाकू विमान हैं। इन विमानों से अधिक अहमियत है उन मिसाइलों की जिनसे वे लैस हैं।

चूंकि ऐसे आधुनिक और मारक क्षमता वाले विमान न तो चीन के पास हैं और न पाकिस्तान के पास इसलिए यह स्वाभाविक है कि उन्हेंं भी एक जरूरी संदेश जाएगा। यह संदेश जाना भी चाहिए। इन दोनों ही देशों का रवैया ठीक नहीं और उनसे सावधान रहने की आवश्यकता है। आवश्यकता इसकी भी है कि सेना के तीनों अंगों की जरूरतें समय पर पूरी करने को लेकर विशेष ध्यान दिया जाए। हालांकि मोदी सरकार के कार्यकाल में रक्षा सौदों को प्राथमिकता के आधार पर अंतिम रूप दिया जा रहा है, लेकिन उन्हेंं और अधिक तेजी से निपटाने की दरकार है।

राफेल लड़ाकू विमानों की चर्चा के बीच किसी को भी यह विस्मृत नहीं करना चाहिए कि उनकी खरीद में जरूरत से ज्यादा देरी हुई। कायदे से लड़ाकू विमानों की खरीद का फैसला आठ-दस साल पहले ही संप्रग सरकार के समय हो जाना चाहिए था, लेकिन उसने सुस्ती ही नहीं दिखाई, बल्कि घोर निर्णयहीनता का भी परिचय दिया। इसके चलते राफेल विमानों की आपातकालीन खरीद करनी पड़ी। इस देरी के साथ इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि राफेल सौदे को लेकर छल-प्रपंच का सहारा लेकर किस तरह भयंकर दुष्प्रचार किया गया। राहुल गांधी ने तो इस सौदे को संदिग्ध बताने के लिए झूठ की दीवार भी खड़ी की। उन्हेंं शर्मिंदगी के अलावा और कुछ हासिल नहीं हुआ। उन्हेंं अपने झूठ और अभद्र दुष्प्रचार के लिए सुप्रीम कोर्ट से माफी मांगनी पड़ी। राहुल गांधी के साथ उन लोगों को भी मुंह की खानी पड़ी जिन्होंने मनगढ़ंत आरोपों के सहारे राफेल सौदे को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी। वास्तव में राफेल सौदे को लेकर जैसी राजनीतिक क्षुद्रता दिखाई गई उसकी मिसाल मिलना मुश्किल है। जिन्होंने भी यह क्षुद्रता दिखाई उन्हेंं नए सिरे से शर्मिंदगी का अहसास ही नहीं होना चाहिए, बल्कि यह जरूरी सबक भी सीखना चाहिए कि राष्ट्रीय सुरक्षा के सवाल पर घटिया राजनीति करना राष्ट्रीय हितों की अनदेखी के अलावा और कुछ नहीं।