उत्तराखंड के पौड़ी-गढ़वाल में एक दुर्घटना में 48 बस यात्रियों की मौत भारत में सड़क हादसों की भयावह स्थिति का ताजा प्रमाण है। इसके लिए तो थोड़ी जांच-पड़ताल की जरूरत है कि रामनगर जा रही बस किन हालात में गहरी खाई में जा गिरी, लेकिन यह तो जग जाहिर है कि इस अभागी बस में क्षमता से करीब दोगुने यात्री सवार थे। हैरत नहीं कि आगे ऐसा कुछ भी सामने आए कि बस चालक पर्याप्त प्रशिक्षित नहीं था अथवा वह लापरवाही से बस चला रहा था। इसी तरह ऐसे भी निष्कर्ष सामने आ सकते हैं कि बस की दशा सही नहीं थी या फिर जहां वह हादसे का शिकार हुई वह दुर्घटना बहुल क्षेत्र था।

आम तौर पर अपने देश में कुछ ऐसे ही कारणों से सड़क हादसे होते हैं। इसके अतिरिक्त एक अन्य कारण बहुत आम है और वह है यातायात नियमों की अनदेखी की प्रवृत्ति। यह अनदेखी इसलिए अक्सर जानलेवा बन जाती है, क्योंकि सड़क पर वाहन चलाते समय जरूरी सावधानी का परिचय देने से इन्कार किया जाता है। इसी के चलते खराब सड़कों के साथ बेहतर सड़कों और यहां तक कि राजमार्गों पर भी बड़ी संख्या में दुर्घटनाएं होती हैं। नि:संदेह अब इससे भी कोई अनजान नहीं कि प्रगति के प्रतीक और पर्याय माने जाने वाले एक्सप्रेस-वे किस तरह हादसों के गवाह बन रहे हैं?

एक अर्से से भारत की गिनती उन देशों में हो रही है जहां सड़क दुर्घटनाओं में कहीं अधिक लोग मारे जाते हैं। एक अनुमान के तहत भारत में प्रति वर्ष एक लाख से अधिक लोग सड़क हादसों में जान गंवाते है। इनमें ज्यादातर युवा अथवा अपने घर-परिवार के कमाऊ सदस्य होते हैं। उनके असमय चल बसने से केवल उनके परिवार को ही नहीं, बल्कि समाज और देश को भी क्षति उठानी पड़ती है। हालांकि केंद्र और राज्य सरकारें इससे अवगत हैं कि सड़क हादसों को रोकने की सख्त जरूरत है, लेकिन इसके लिए जो उपाय किए जाने चाहिए वे मुश्किल से ही अमल में आ पा रहे हैं।

स्थिति यह है कि राष्ट्रीय राजमार्गों के दुर्घटना बहुल उन स्थलों को भी दुरुस्त नहीं किया जा सका है जिनकी पहचान बहुत पहले हो गई थी। जब राष्ट्रीय राजमार्गों की यह दशा है तो फिर अन्य मार्गों में दुर्घटनाएं रोकने के उपायों के बारे में सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। बेहतर यह होगा कि केंद्र एवं राज्य सरकारें सड़क हादसों को रोकने के लिए मिलकर काम करें। इसमें पहले ही बहुत अधिक देरी हो चुकी है। और अधिक देरी एक तरह से जानलेवा ही सिद्ध हो रही है।

अपने देश में हर दिन कहीं न कहीं कोई बड़ी सड़क दुर्घटना होती है, लेकिन उन पर नीति नियंताओं का ध्यान तभी जाता है जब कहीं ज्यादा लोग मारे जाते हैं। आमतौर पर ऐसे समय भी शोक संवेदना व्यक्त कर अथवा मुआवजे की घोषणा कर कर्तव्य की इतिश्री कर ली जाती है। क्या यह उम्मीद की जा सकती है कि उत्तराखंड सरकार केवल इतने तक ही सीमित नहीं रहेगी? वैसे तो सड़क दुर्घटनाओं को लेकर सभी राज्यों को चेतने और ठोस कदम उठाने की जरूरत है, लेकिन पर्वतीय राज्यों को कुछ अतिरिक्त उपाय करने होंगे।