[ बद्री नारायण ]: सामाजिक समूहों का मत ही जनतंत्र का निर्माण करता है और इनके आधार पर ही राजनीतिक नेतृत्व की दशा-दिशा तय होती है। ऐसे में यदि कोई सामाजिक समूह सत्ता एवं जनतांत्रिक स्नोतों के वितरण में सक्रिय हस्तक्षेप नहीं कर पाता तो पर्याप्त मतशक्ति के बावजूद राजनीतिक नेतृत्व में उसकी सापेक्ष भागीदारी संभव नहीं हो पाती। यहां इससे आशय भारतीय राजनीति में युवाओं और महिलाओं के रूप में दो सामाजिक वर्गों से है। भारत युवा आबादी वाला देश है और बीते कुछ दशकों में यहां ‘युवा’ मतदाताओं की संख्या लगातार बढ़ी है।

अलग-अलग जाति समूह एवं राजनीतिक दलों में बंटे होने के बावजूद राजनीतिक हस्तक्षेप की अपनी क्षमता के कारण उन्हें विभिन्न राजनीतिक दलों में भागीदारी मिलने लगी है। अब वे केवल अपने-अपने दलों की ‘युवा इकाई’ की राजनीति तक सीमित नही हैं, बल्कि उन्हें अपने-अपने दलों में शीर्ष पर भी जगह मिल रही है। इसी तरह आधी आबादी यानी महिलाओं में मत देने की चाह तो बढ़ी है, लेकिन अभी उनमें राजनीतिक हस्तक्षेप की अपेक्षित शक्ति विकसित नहीं हो पाई है। शायद यही कारण है कि आबादी के अनुपात में उन्हें राजनीतिक प्रतिनिधित्व नहीं मिला है।

पुरुष प्रधान समाज के प्रभाव में होने के कारण महिलाओं की भूमिका अभी भी मां, बहन और पत्नी के रूप में ही बनी हुई है। उनका मत पुरुष मतों का अनुषंगी माना जाता है। हालांकि समय के साथ यह स्थिति थोड़ी बदली है। बदली छवि से महिलाओं का राजनीतिक हस्तक्षेप मुखर हुआ है। वे अपने परिवार की परिपाटी से अलग अपने विवेक से मतदान करने लगी हैं।

क्या दो दशक पहले हम किसी राज्य में युवा मुख्यमंत्री की कल्पना कर सकते थे? अतीत में यह पद अमूमन वरिष्ठ नेताओं को ही मिलता था, किंतु अब त्रिपुरा और महाराष्ट्र में युवा मुख्यमंत्री ही हैं। बिहार, मध्य प्रदेश और राजस्थान में युवा चेहरे इस पद के लिए सशक्त दावेदारी कर रहे हैं। जल्द चुनावों का सामना करने जा रहे मध्य प्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया और राजस्थान में सचिन पायलट अपने दल में मुख्यमंत्री पद के दावेदार के रूप में उभर रहे हैं। वहीं बिहार में तेजस्वी यादव आगामी चुनाव में विपक्षी राजनीति का नेतृत्व करेंगे।

अगर मध्य प्रदेश की बात करें तो जमीनी रिपोर्ट से साफ हो रहा है कि राहुल गांधी और ज्योतिरादित्य सिंधिया की सभाओं में काफी भीड़ आ रही है। इस भीड़ में युवाओं की अच्छी खासी तादाद है। सेल्फी लेने और हाथ मिलाने में युवा सबसे आगे नजर आते हैं। जबलपुर, भिंड और ग्वालियर संभाग में सिंधिया को लेकर खासा उत्साह भी दिख रहा है। दिग्विजय सिंह इस चुनाव में कांग्रेस का चुनावी चेहरा नहीं हैं। हालांकि वे अपने संपर्कों को कांग्र्रेस के पक्ष में साधने में जुटे हैं। कांग्रेस के लिए अभी शुभ संकेत यही है कि मुख्यमंत्री पद की हसरत पालने के बावजूद ये आपस में लड़ नहीं रहे हैं।

दूसरी ओर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान जनता से अपना भावनात्मक संबंध स्थापित करते हुए अपने खिलाफ सत्ता विरोधी रुझान के असर को कम करने के लिए जीतोड़ मेहनत कर रहे हैं। हाल में केंद्र सरकार द्वारा एससी-एसटी एक्ट में किए गए परिवर्तन से गैर-अनुसूचित तबके नाराज हैं तो जनजातीय समूहों में विकास को लेकर उपेक्षा असंतोष पैदा कर रही है। देखना यही होगा कि इन्हें राजनीतिक रूप से भुनाने में जुटी कांग्रेस को चौहान कैसे चित कर पाते हैं।

उधर राजस्थान में सचिन पायलट गुर्जर, युवा और कांग्रेस के पारंपरिक मतों के मिश्रण से अपना राजनीतिक आधार विकसित करने में जुटे हैं। वह वसुंधरा राजे सरकार के खिलाफ नाराजगी को भुनाने की पुरजोर कोशिश कर रहे हैं। उनकी और राहुल गांधी की रैलियों में आ रही युवाओं की भीड़ की तस्वीरें सोशल मीडिया पर अलग माहौल बना रही हैं। इस प्रकार युवा शक्ति जितनी दिखाई पड़ रही है, स्मार्टफोन की शक्ति के कारण सोशल साइट्स पर फैलाकर अपने मत को उससे बड़े जनसमूह तक फैला रही है। किफायती स्मार्टफोन और बेहद सस्ते डाटा के दम पर निम्न मध्यमवर्ग और समाज में हाशिये के लोग भी सोशल साइट्स पर पैठ बनाने में सफल हुए हैं। इसने जनमत निर्माण में उनकी ताकत कई गुना बढ़ा दी है।

सबसे रोचक स्थिति बिहार में है। बिहार में अभी विधानसभा का चुनाव तो नहीं होने जा रहा है, परंतु बिहार की जनता 2019 के लोकसभा चुनाव के लिए तैयार हो रही है। यहां तेजस्वी यादव केवल राजद का समर्थन का आधार माने जाने वाले यादव मतदाताओं में ही नहीं, बल्कि अन्य जाति के मतदाताओं में भी लोकप्रियता हासिल कर रहे हैं।

इससे वह अपना प्रभाव बढ़ाने में सफल होकर नीतीश कुमार सरकार के खिलाफ लोगों को लामबंद करने में लगे हैं। लालू यादव के जेल जाने के बाद उन्होंने राजद को राजनीतिक रूप से कमजोर नहीं पड़ने दिया, बल्कि उसे एक नई शक्ति प्रदान की है। लालू यादव के जेल जाने से मतदाताओं के एक वर्ग में तेजस्वी यादव को सहानुभूति का भाव भी मिल रहा है। वह मीडिया और ट्विटर में लगातार अपना पक्ष रखकर, राजनीतिक बैठकों, रैली एवं सभाओं के माध्यम से अपने पक्ष में माहौल बना रहे हैं। उनकी वक्तृत्व कला भी उनका काम आसान बना रही है।

नीतीश कुमार कभी अच्छे वक्ता नहीं माने जाते हैं। उनका जीवन एवं कार्य उन्हें ज्यादा लोकप्रिय बनाता रहा है। नीतीश के प्रति अभी भी लोगों में प्रशंसा भाव है, लेकिन यह प्रशंसा भाव सिर्फ भाव तक ही सीमित न रह जाए और वोटों में भी तब्दील हो पाए, इसके लिए आगामी चुनाव में उन्हें खासी मशक्कत करनी पड़ेगी। फिलहाल मुजफ्फरपुर बाल निकेतन कांड, बिहार में बढ़ रही हिंसा एवं योजनाओं को ठीक से एवं सही लक्ष्य समूह तक नहीं पहुंचा पाना उनके रास्ते में रोड़े की तरह खड़े हैं।

दूसरी तरफ युवा व्यक्तित्व, प्रखर वक्ता और मजबूत सामाजिक आधार को लेकर तेजस्वी यादव उन्हें कड़ी चुनौती देने के लिए खड़़े हैं। तेजस्वी ने इधर बिहार के मतदाताओं के बीच भरोसा हासिल किया है, किंतु हमारे क्षेत्रीय अवलोकनों में साफ देखने को मिला कि नीतीश के प्रति बढ़ती नाउम्मीदी के बावजूद उनकी सरकार के खिलाफ कोई खास सत्ता विरोधी रुझान नहीं दिख रहा है। यह उनके लिए सकारात्मक है। उन्हें अपने प्रति लोगों में फैले प्रशंसाभाव को सिर्फ चायचर्चा तक ही न रहने देकर मतों में बदलना होगा।

वहीं तेजस्वी यादव को अपनी विकसित हो रही करिश्माई छवि को और ज्यादा प्रभावी बनाना होगा। साथ ही लालू यादव के जेल जाने से उनके लिए उत्पन्न हुए सहानुभूति के भाव को भलीभांति भुनाना होगा। देखना है कि आगामी चुनावों से क्या हिंदी क्षेत्र के राज्यों में ये युवा चेहरे नेतृत्वकारी शक्ति प्रदान कर पाते हैं कि नहीं। यह भी देखना है कि यह युवा शक्ति हिंदी पट्टी में राजनीति एवं विकास का चेहरा बदल पाने में सक्षम हो पाएगी या नहीं। भारतीय जनतंत्र का युवा पक्ष अभी बनना बाकी है। अभी भी इसके बनने में कई किंतु और परंतु लगे हैं।

[ लेखक गोविंद बल्लभ पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान के निदेशक हैं ]