[ नाइश हसन ]: एक अर्से से विभिन्न स्तरों पर समान नागरिकता संहिता को लेकर चर्चा हो रही है। हाल में संविधान दिवस के अवसर पर यह मांग तेज हुई कि अब समान नागरिक संहिता लागू करने का समय आ गया है। इस मांग का कारण यह रहा कि 23 नवंबर, 1948 को लंबे बहस-मुबाहिसे के बाद संविधन में अनुच्छेद 44 को शामिल किया गया था। अनुच्छेद 44 यही कहता है कि भारत के सभी नागरिकों के लिए उनके धर्म, क्षेत्र, लिंग, भाषा आदि से ऊपर एक समान नागरिक कानून लागू किया जाए। संविधान सभा ने इसका निर्देश भी सरकार को दिया था। वैसे तो भारतीय नागरिकों के लिए एक समान कानून हैैं, लेकिन उत्तराधिकार, विवाह, तलाक और बच्चों के संरक्षण के मामले में विभिन्न समुदायों के लिए अलग-अलग कानून हैैं और वे नाइंसाफी पर टिके हैैं।

किसी भी सरकार ने समान नागरिक संहिता का मसौदा तैयार करने की जहमत नहीं उठाई

सरकारें आईं और चली गईं, लेकिन किसी सरकार ने समान नागरिक संहिता का मसौदा तक तैयार करने की जहमत नहीं उठाई है। उन सरकारों ने भी ऐसा नहीं किया जिसके नेता समान नागरिक संहिता की पैरवी करते रहे। जब भी समान नागरिक संहिता का सवाल उठा उसे अल्पसंख्यक बनाम बहुसंख्यक की बहस और अन्य बेजा दलीलों से उलझा दिया गया। जो बहस हुई भी उसका अंत हमेशा दोषारोपण के साथ हुआ।

सभी समुदायों की महिलाओं के साथ नाइंसाफी

यह समझने की जरूरत है कि यदि पारिवारिक कानून इंसाफ पसंद हों तो इसका सबसे अधिक लाभ महिलाओं को मिलेगा। आए दिन महिलाओं के खिलाफ होने वाली घटनाएं यही बताती हैैं कि सभी समुदायों की महिलाओं के साथ किसी न किसी स्तर पर नाइंसाफी हो रही है। परिवार के भीतर महिला अधिकारों के सवाल को धार्मिक चिंताओं के दायरे से बाहर खींचकर एक मानवाधिकार के सवाल के रूप में स्थापित करना बेहद जरूरी है। मानवाधिकारों की सही रक्षा तभी संभव है जब समान नागरिकता संहिता लागू हो। अनुच्छेद 44 पर बहस के दौरान बाबा साहब आंबेडकर ने कहा था कि धर्म को इतना विस्तृत और व्यापक क्षेत्र क्यों दिया जाना चाहिए कि वह संपूर्ण जीवन पर कब्जा कर ले और विधायिका को इन क्षेत्रों में हस्तक्षेप करने से रोके?

स्त्री और पुरुष को समान अधिकार मिलें

चूंकि धर्म पितृसत्तात्मक विचारधारा में गहरी जड़ें रखता है इसलिए स्त्री और पुरुष के बीच आधारभूत शक्ति असंतुलन पर चोट नहीं की जा सकती। राज्य बनाम समुदाय और समुदाय बनाम महिला का ध्रुवीकरण तोड़ने की जरूरत है। तीन तलाक पर उठी बहस में हमने देखा था कि महिलाओं को कमअक्ल और जज्बाती बताकर तीन तलाक को बनाए रखने के लिए धर्मगुरु किस तरह दलीलें पेश कर रहे थे। वे मुस्लिम महिलाओं को हमारी औरतें बता रहे थे। कुछ ऐसा ही रवैया 1955 में हिंदू कोड बिल के समय दिखाया गया था। इस कानून के विरोध में अजीब-अजीब तर्क दिए जा रहे थे। किसी ने कहा कि यह पूरे हिंदू समाज के ढांचे को ध्वस्त करने की साजिश है तो किसी ने कहा कि परिवार में स्त्री और पुरुष की भूमिकाएं और जवाबदेही अलग-अलग हैैं, इसलिए दोनों को समान अधिकार देने का कोई औचित्य ही नहीं।

पुरुष चरवाहे की तरह धर्म के डंडे के सहारे महिलाओं को हांकना चाहते हैैं

कोई भी समुदाय हो, उसकी महिलाएं उस समुदाय के पुरुषों के लिए भेड़-बकरियां नहीं होतीं। मुश्किल यह है कि पुरुष चरवाहे की तरह धर्म के डंडे के सहारे उन्हें हांकना चाहते हैैं। समान नागरिक संहिता पर अब तक महिला आंदोलन के बाहर जो भी बहस हुई है वह धार्मिक पहचान के संकट, वोट की राजनीति, तुष्टीकरण के इर्द-गिर्द ही घूमती रही हैैं। अफसोस की बात यह रही कि जिसके न्याय के लिए यह बहस प्रारंभ हुई वह यानी महिला ही उसके केंद्र से गायब रही। समान संहिता की जरूरत को न्याय से नहीं जोड़ा गया। कभी यह बहस अल्पसंख्यक वोटों की गोलबंदी करती नजर आती रही तो कभी वोटों को लिए बहुसंख्यक समुदाय की भावनाओं को भुनाती हुई।

लैंगिक समानता पर आधारित एक समान संहिता बने

समझना कठिन है कि समान नागरिक संहिता की बहस में धर्मगुरु क्यों कूद पड़ते हैैं? पता नहीं वे किस आधार पर समान नागरिक संहिता को धर्म में छेड़छाड़ बताने लगते हैैं? इसका नतीजा यह होता है कि हम समाधान की ओर नहीं बढ़ पाते। देश की दो बड़ी सियासी पार्टियों कांग्रेस और भाजपा, दोनों ने इस मुद्दे को सांप्रदायिक रंग ही अधिक दिया है। लैंगिक समानता पर आधारित एक समान संहिता बने, यह महिला आंदोलन की एक पुरानी मांग है। ऐसी किसी संहिता के अभाव में उन महिलाओं के सामने कोई रास्ता नहीं बचता जो भेदभावपूर्ण पारिवारिक कानूनों की जकड़न से ग्रस्त हैैं।

सुप्रीम कोर्ट ने की अनेक मौकों पर समान नागरिक संहिता की वकालत

समान नागरिक संहिता तैयार करना न तो किसी धार्मिक पहचान पर आक्रमण है न ही इससे किसी तरह का कोई नुकसान है। इसे टच मी नॉट बना कर देखना गलत है। गौर कीजिए, सुप्रीम कोर्ट ने एक नहीं अनेक मौकों पर समान नागरिक संहिता की वकालत की है। 1985 में शाहबानों केकेस में भी सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि यह दुख का विषय है कि हमारे संविधान का अनुच्छेद 44 मृत होकर रह गया है। इसके बाद 1995 में सरला मुदगल केस में भी सुप्रीम कोर्ट ने पूछा था कि संविधान के अनुच्छेद 44 के लिए संविधान निर्माताओं की इच्छा को पूरा करने में सरकार को अभी कितना और समय लगेगा? 2003 में जॉन बलवत्तम केस में सुप्रीम कोर्ट ने फिर कहा कि यह दुख की बात है कि संविधान के अनुच्छेद 44 को अभी तक लागू नहीं किया गया।

सरकार की ओर से समान नागरिक संहिता पर प्रयास नहीं किए गए

2017 में भी शीर्ष अदालत में यह मुद्दा उठा। इसके अलावा भी सुप्रीम कोर्ट ने कई बार यह सवाल उठाया कि अभी तक सरकार की ओर से समान नागरिक संहिता को लेकर कोई प्रयास क्यों नहीं किया गया? इसके विरोध में तर्क देने वाले लोग हमेशा अनुच्छेद 25 अर्थात धार्मिक आजादी का सवाल उठाते हैं, लेकिन उसी में दर्ज है कि कुप्रथा और भेदभाव को धार्मिक आजादी नहीं माना जा सकता। ऐसा कानून बनाने की मांग एक जायज मांग है जो न्याय को धार्मिक मान्यताओं के आधार पर नहीं, बल्कि भारत के नागरिकों के हितों को ध्यान में रखकर परिभाषित करे। न्याय वही है जो धार्मिक संदर्भ देखे बिना मानवीय आधार पर हो सके। लैंगिक समानता पर आधारित समान नागरिक संहिता के सवाल पर देश में बहस इस इरादे की जानी चाहिए ताकि महिलाओं को भेदभाव से मुक्ति मिल सके।

( लेखिका महिला अधिकार कार्यकर्ता हैैं )