[यशपाल सिंह]। हमारी संसद जनतांत्रिक मूल्यों की उम्दा अभिव्यक्ति है। उसके सदस्य जनप्रतिनिधि राष्ट्रीय विधायिका के मंच पर संघ की संवैधानिक शक्तियों का जनहित में उपभोग करते हैं। दुख की बात है कि आपराधिक पृष्ठभूमि या मानसिकता के कुछ लोग आज इसकी प्रकृति को दूषित कर रहे हैं। अब जब नए साल में नए संसद भवन का निर्माण शुरू होगा तब हमें इसे दागियों से मुक्त करने का भी संकल्प लेना चाहिए। राजनीतिक पार्टियों से इस संबंध में कोई विशेष उम्मीद नहीं की जा सकती, क्योंकि उन्हें जिताऊ उम्मीदवार चाहिए। लोकतंत्र की संवैधानिक शुचिता को बनाए रखने के लिए सर्वोच्च न्यायालय को ही अब जनहित में आगे आकर प्रभावकारी दिशा-निर्देश जारी करने होंगे।

अच्छी बात है कि इस संबंध में सर्वोच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर कर मांग की गई है कि दो साल से अधिक की सजा पाए अपराधियों पर मात्र छह साल के लिए चुनाव लड़ने से रोक लगाने के बजाय उन्हें आजीवन प्रतिबंधित किया जाना चाहिए। हालांकि दागियों को संसद और विधानसभाओं में प्रवेश से रोकने के लिए कुछ प्रयास किए गए हैं। जैसे-प्रत्याशियों का आपराधिक इतिहास अखबारों में प्रकाशित होना चाहिए। उसे चुनाव आयोग की वेबसाइट पर भी डाला जाना चाहिए।

संसद में 2004 के दौरान 24 प्रतिशत थे दागी

पार्टियों को भी चुनाव आयोग को कारण बताने को कहा गया है कि उन्होंने क्यों किसी दागी व्यक्ति को टिकट दिया आदि, लेकिन इसका खास प्रभाव नहीं पड़ रहा है। संसद में 2004 में 24 प्रतिशत दागी थे, जो 2009 में 30 प्रतिशत, 2014 में 34 प्रतिशत और 2019 में बढ़कर 43 प्रतिशत हो गए। यह संख्या समय के साथ बढ़ती जा रही है। अगर इसी प्रकार के दिखावटी प्रतिबंध बने रहे तो अगले दो दशकों में संसद और विधानसभाओं में इनकी संख्या 75 प्रतिशत से भी ऊपर जा सकती है। फिर देश का क्या हाल होगा, इसका अनुमान कोई भी जागरूक नागरिक आसानी से लगा सकता है।

सांसद और विधायक निधि में अवैध कमाई लगाकर करते हैं गड़बड़ी

हालांकि आरोपित और दोष सिद्धि जैसी श्रेणियों में विभाजित कर दागियों को चुनाव लड़ने से रोकना या न रोकना भी इस समस्या का समाधान नहीं है, क्योंकि तमाम ऐसे शातिर अपराधी हैं जिन्हें पूरी जिंदगी सजा होती ही नहीं। फिर स्वयं राजनीति में आकर साम, दाम, दंड भेद से अपने खिलाफ सभी मामले धीरे-धीरे खत्म करा लेते हैं। वास्तव में ये ‘माफिया’ होते हैं और जनप्रतिनिधि होते ही सर्वशक्तिमान हो जाते हैं। सांसद और विधायक निधि में अपनी अवैध कमाई लगाकर भी वे गड़बड़ करते हैं। ऐसे लोगों का जनप्रतिनिधि चुना जाना, समाज को क्या संदेश देता है? ऐसे लोग बड़ी संख्या में हैं। कुछ तो जनप्रतिनिधि हो चुके होते हैं और कुछ होने की फिराक में रहते हैं।

सरकारी कर्मचारियों को सजा के तौर पर नौकरी से निकाले जाने को लेकर केंद्र ने दिया जवाब

जनहित याचिका में यह तर्क दिया गया है कि सरकारी कर्मचारियों को सजा होते ही नौकरी से निकाल दिया जाता है और जीवन भर के लिए प्रतिबंधित कर दिया जाता है। किसी पर सेवा में चयन के पहले से अगर कोई आपराधिक मामला है तो उसे नौकरी में लिया ही नहीं जाता है। केंद्र सरकार ने इसके जवाब में अपने शपथ पत्र में कहा है कि यद्यपि चुने हुए जनप्रतिनिधि भी सरकारी सेवक हैं, परंतु वे किसी आचार संहिता से नियंत्रित नहीं हैं। वे अपने पद की शपथ लेते हैं और उसी से अपनी अंतरात्मा द्वारा नियंत्रित होते हैं। न्यायिक दृष्टि से यह तर्क कितना उचित है कुछ नहीं कह सकते, परंतु वास्तविकता में यह तर्क हास्यास्पद ही कहा जाएगा। 

देश का सामाजिक तानाबाना 

एक माफिया जो ठंडे दिमाग और योजनाबद्ध तरीके से अपराध करता या कराता है और अपने अवैध धंधे को बेरहमी और बेशर्मी से संचालित करता है, उसके लिए किसी ‘शपथ’ का अर्थ ही क्या? क्या ऐसे लोगों को चुने जाने से पहले और चुने जाने के बाद किसी न्यायसंगत आचार संहिता, नियमावली या फिर कोर्ट के निर्देशों जैसे बाध्यकारी पहलुओं से नियंत्रित नहीं किया जाना चाहिए? पिछली सदी के आठवें दशक के बाद से इन्होंने समाज में एक नई ‘आपराधिक संस्कृति’ को जन्म दे रखा है और अधिकांश मध्यमवर्गीय परिवारों के नवयुवक इससे बहुत प्रभावित हैं। अपराध उन्हें एक ‘शानदार’ करियर के रूप में दिखाई दे रहा है। अगर यही स्थिति रही तो देश का सामाजिक तानाबाना ध्वस्त हो जाएगा।

प्रजातंत्र की रक्षा के लिए असामाजिक तत्वों पर नियंत्रण है आवश्यक

ब्रिटेन में 1653 में ऑलिवर क्रॉमवेल ने हर प्रकार के दागी जनप्रतिनिधियों के खिलाफ अभियान छेड़कर संसदीय गरिमा की रक्षा की, अन्यथा लोकतंत्र का ब्रिटेन से ही आरंभ होने के साथ अंत भी हो जाता। वोटों पर आधारित चुनाव व्यवस्था में हर प्रकार के असामाजिक ताकतों का पनपना और फिर प्रजातंत्र का भीड़तंत्र में बदल जाना स्वाभाविक है। इसीलिए प्रसिद्ध दार्शनिक अरस्तू शासन के इस तंत्र के खिलाफ थे। उसका कहना था कि प्रजातंत्र की रक्षा के लिए असामाजिक तत्वों पर नियंत्रण आवश्यक है। उसे भीड़तंत्र में बदल जाने से रोकने का हरसंभव प्रयास किया जाना चाहिए।

कानून का राज भारतीय संविधान के बुनियादी ढांचे का अभिन्न अंग है। इसकी रक्षा की जिम्मेदारी सुप्रीम कोर्ट की है। इसीलिए उसे संविधान ने इतना ‘सशक्त और सक्षम’ बनाया है। माफिया और अपराधी तत्व हमारी आपराधिक न्यायिक व्यवस्था के वर्तमान जर्जर तंत्र की पकड़ से बाहर हैं। वे अपराध भी अपने चुने स्थान और समय पर करते या कराते हैं और मामले से बरी भी अपने तरीके से हो जाते हैं। इन्हें जनप्रतिनिधि बनने से तभी रोका जा सकता है जब चुनाव का पर्चा दाखिल करने से पहले संबंधित उच्च न्यायालय की एक पीठ से अनापत्ति प्रमाण पत्र (एनओसी) प्राप्त करना अनिवार्य किया जाए। उनके आपराधिक इतिहास, अपराध की परिस्थिति और गंभीरता को देखते हुए मुकदमों में उपलब्ध साक्ष्यों की समीक्षा कर यह एनओसी दी जाए। अन्यथा संसद भवन की नई इमारत भले ही कितनी उज्ज्वल क्यों न हो, लेकिन उनमें इन स्याह सफेदपोशों का ही बोलबाला होगा।

(लेखक उत्तर प्रदेश के पूर्व डीजीपी हैं) 

[लेखक के निजी विचार हैं]