रसाल सिंह। पिछले कुछ महीनों में घाटी में कश्मीरी हिंदुओं और गैर कश्मीरियों को निशाना बनाकर उनकी हत्या के मामलों में जो तेजी आई, उसने पूरे देश की चिंता बढ़ाई है। ‘टारगेटेड र्किंलग’ की ये घटनाएं असल में आतंकियों की बौखलाहट का नतीजा हैं। पिछले कुछ समय से सुरक्षा प्रतिष्ठान की सक्रियता उन पर आफत बनकर टूटी है। इस बीच एनआइए की एक अदालत द्वारा आतंकी यासीन मलिक को सुनाई गई सजा से भी स्पष्ट संदेश निकला है कि भारतीय राज्य अब आतंकियों से सख्ती से निपटने वाला है।

यह भी उल्लेखनीय है कि एनआइए अदालत ने शांति-सुलह का ढोंग करने वाले पाकिस्तानी पिट्ठू हुर्रियत कांफ्रेंस जैसे संगठन को भी ‘आतंकी’ बताया। वास्तव में आतंकी, हुर्रियत जैसे अलगाववादी संगठन और पाकिस्तान का त्रिकोण भारत के खिलाफ हमेशा षड्यंत्र करता रहा है और आज भी कर रहा है। इसमें मुख्यधारा के नेताओं का चौथा कोण भी है, जिन्हें अभी अनावृत्त करना शेष है। ये चारों मिलकर अपनी-अपनी तरह से भारत के खिलाफ जंग छेड़े हुए हैं।

एनआइए की जांच में यह सामने आया कि यासीन मलिक, शब्बीर शाह, मुहम्मद अशरफ खान, मसर्रत आलम, जफर अकबर, सैयद अली शाह गिलानी, उसका बेटा नसीम गिलानी और आसिया अंद्राबी आदि इस जंग के प्रमुख किरदार हैं। यासीन मलिक इस आतंकी काकटेल के सबसे दुर्दांत चेहरों में से एक है और उसे सजा मिलने के बाद उम्मीद बंधी है कि कानून के हाथ अन्य आतंकियों तक भी पहुंचेंगे। स्पष्ट है कि इससे भी आतंकी और उनके समर्थक बौखलाए हुए हैं। जिस तरह यासीन को सजा मिली, उसी तरह अन्य आतंकियों और उनके

खुले-छिपे समर्थकों को भी मिलनी चाहिए।

यासीन की सजा पर उठे इन सवालों का भी जवाब मिलना चाहिए कि आखिर उसके उन मददगारों को सजा कब मिलेगी, जिन्होंने उसे गांधीवादी साबित करने के लिए हरसंभव जतन किए। आतंक के खिलाफ युद्ध को अंजाम तक पहुंचाने के क्रम में यह भी सामने आना चाहिए कि चार सैन्य अफसरों की हत्या और रूबिया सईद के रहस्यमय अपहरण में लिप्त होने के बावजूद 1994 में यासीन को क्यों और किसके इशारे पर रिहा किया गया? कश्मीर में आतंकियोंं के पनाहगार बने सफेदपोश ‘जयचंदों’ का भी पर्दाफाश किया जाना चाहिए और यह भी जांचा जाना चाहिए कि क्या आतंकियों-अलगाववादियों के तार मुख्यधारा के नेताओं और स्वयंभू सेक्युलर-लिबरल तत्वों से भी जुड़े रहे हैं?

कश्मीर में टारगेट र्किंलग की घटनाओं के बाद तो इसके साफ संकेत मिल रहे हैं कि कश्मीर के प्रशासन में भी आतंकियों के समर्थक घुसे हुए हैं। आतंक की कमर तोड़ने के लिए इन्हें भी बेनकाब करना होगा। सुरक्षा एवं खुफिया एजेंसियों के साथ न्यायपालिका को भी तत्परता दिखानी होगी। कम से कम आतंकवाद के संगीन मामलों का निपटान तो त्वरित गति से होना ही चाहिए। बेहतर हो कि इन मामलों की सुनवाई विशेष अदालतों में हो, ताकि आतंकियों और उनके समर्थकों को सबक सिखाने के साथ कश्मीरी अवाम को भी सही संदेश दिया जा सके।

यह एक तथ्य है कि पूर्ववर्ती सरकारों ने आतंकवाद को अनदेखी किया। यासीन मलिक जैसे खूंखार आतंकियों को स्वीकार्यता प्रदान करना इसका प्रमाण है। उल्लेखनीय है कि पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से मिलने वाले कश्मीरी प्रतिनिधिमंडल और अप्रैल 2005 में शुरू हुई ‘कारवां-ए-अमन’ बस सेवा से पाकिस्तान जाने वालों में यासीन भी शामिल था। उसे ‘कश्मीर समस्या’ पर बात करने के लिए अमेरिका भी भेजा गया।

कश्मीर मुद्दे के जबरिया स्टेकहोल्डर बने ये आतंकी-अलगाववादी और यहां तक कि मुख्यधारा के कई नेता भी दिल्ली में भारत की एकता, अखंडता और संप्रभुता की बात करते थे, जम्मू में सेक्युलरिज्म और स्वतंत्रता का पाठ पढ़ाते थे और श्रीनगर पहुंचते-पहुंचते पाकिस्तानपरस्ती पर उतर आते थे। विदेशी पैसे पर पलने वाले इन लोगों ने हमेशा दहशतगर्दी और खून-खराबे की फसल बोई और काटी है। ये न सिर्फ भारत के, बल्कि अमन-चैन और तरक्की के भी दुश्मन हैं। उन्हें उनकी करतूतों की सजा देकर ही आतंकवाद का खात्मा किया जा सकता है और जम्मू-कश्मीर में खुशहाली लाई जा सकती है। अब इस दिशा में काम हो रहा है। यासीन मलिक की सजा

पर ‘गुपकार गैंग’ के नेताओं की प्रतिक्रिया इसकी बानगी है। यह प्रतिक्रिया उनके असल चेहरे और मंसूबों को उजागर करती है। क्या यह हैरानी की बात नहीं कि इन नेताओं की प्रतिक्रिया काफी कुछ पाकिस्तान जैसी रही?

जम्मू-कश्मीर में तेजी से सामान्य हो रहा जनजीवन भी आतंकियों की आंखों में चुभ रहा है। कामकाज के लिए देश भर से लोग राज्य में आ रहे हैं। दशकों बाद इस बार इतनी बड़ी संख्या में सैलानी कश्मीर घूमने निकले हैं। 5 अगस्त, 2019 के बाद हुए तमाम सुधारों और सकारात्मक परिवर्तन ने आतंकियों और उनके समर्थकों को बेचैन एवं बदहवास किया है। ऐसे में सरकार और सुरक्षा बलों को अपने आतंक विरोधी अभियान को और धारदार बनाना होगा, ताकि राज्य में पटरी पर आर्ती ंजदगी को आतंकी अपनी करतूतों से बेपटरी न कर सकें। इसी के साथ घाटी में कश्मीरी र्ंहदुओं को बसाने की योजना को दृढ़ता से आगे बढ़ाना होगा, भले ही इसके लिए विशेष कालोनियां क्यों न बनानी पड़ें?

सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम करते हुए लोगों के भरोसे और मनोबल को बनाए रखना अत्यंत आवश्यक है, क्योंकि यह मनोबल की लड़ाई भी है। यह समझने की जरूरत है कि आतंकियों और उनके समर्थकों को समय पर सख्त सजा न देने से अतिवाद और आतंकवाद बढ़ता ही है। अच्छी बात है कि देर से ही सही, लेकिन दुरुस्त कदम उठाए जा रहे हैं।

(लेखक जम्मू केंद्रीय विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं)