संजय वर्मा। मानव सभ्यता में एक दौर ऐसा भी था जब किसी बीमारी में प्राथमिकता मरीज के आराम को दी जाती थी, ना कि चिकित्सा पद्धति को। लेकिन आज हालात ये हैं कि दवाओं के मामले में भी पूरब-पश्चिम के झगड़े हैं और फार्मा इंडस्ट्री में इसे लेकर होड़ है कि कौन-सा देश और कौन-सी कंपनी पहले कोरोना महामारी की रोकथाम की वैक्सीन बनाने में सफल हो पाती है। इधर योग गुरु बाबा रामदेव की कंपनी पतंजलि आयुर्वेद लिमिटेड की तरफ से बाजार में लाई जा रही कोरोना की दवा को लेकर भी ऐसा ही विवाद छिड़ा है।

क्लीनिकल ट्रायल की सच्चाई : दरअसल पतंजलि फार्मेसी ने क्लीनिकल ट्रायल के बल पर इस दवा से कोरोना मरीजों के सौ फीसद इलाज का दावा किया है, लेकिन सरकार के आयुष मंत्रालय ने कहा कि उसे इस दवा पर किए गए क्लीनिकल ट्रायल की सच्चाई और विवरणों की कोई जानकारी नहीं है। हालांकि बाबा रामदेव की कंपनी इसे ‘कम्युनिकेशन गैप’ की समस्या बता रही है, लेकिन इस पूरे हंगामे में यह बात तकरीबन हाशिये पर ही चली गई है कि तमाम गंभीर बीमारियों का इलाज आयुर्वेद, यूनानी या होम्योपैथिक चिकित्सा पद्धति से भी हो सकता है। ये आरोप बेबुनियाद नहीं हैं कि पूरी दुनिया का फार्मा उद्योग इस कोशिश में लगा रहता है कि किसी भी तरह से एलोपैथिक चिकित्सा को हल्की सी चुनौती ना मिल पाए। इसके लिए आयुर्वेद, यूनानी और होम्योपैथी जैसी पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियों को सतत खारिज किया जाता है और इसका एक अहम आधार क्लीनिकल ट्रायल को बनाया जाता है।

पतंजलि के दावे अपनी जगह हैं : हमारे देश में खास तौर से आयुर्वेद को लेकर बीते कुछ वर्षों से क्लीनिकल ट्रायल की बात उठती रही है। इधर कोरोना वायरस के प्रसार को थामने और किसी भी किस्म के बाह्य संक्रमण के खिलाफ शरीर की प्रतिरोधी क्षमता में इजाफा करने में आयुर्वेदिक चिकित्सा को उपयोगी बताया जा रहा है। पतंजलि के दावे अपनी जगह हैं, पर इससे अलग आयुष मंत्रालय के अधीन काम करने वाले राष्ट्रीय आयुर्वेद संस्थान ने कोरोना को लेकर जो चार आयुर्वेदिक औषधियां तैयार की हैं, उनका विभिन्न जगहों पर कोरोना पॉजिटिव मरीजों पर क्लीनिकल ट्रायल किया जा रहा है।

आयुर्वेदिक काढ़े का क्लीनिकल ट्रायल : राजस्थान के जयपुर में करीब 12 हजार लोगों को केंद्रीय आयुष मंत्रालय ने क्लीनिकल रिसर्च ऑर्गनाइजेशन टीम के साथ मिलकर इम्युनिटी बढ़ाने वाली इस आयुर्वेदिक दवा पर क्लीनिकल ट्रायल शुरू किया है। लखनऊ में भी कोरोना पर लगाम लगाने के मकसद के साथ आयुर्वेदिक काढ़े का क्लीनिकल ट्रायल लोकबंधु अस्पताल में चल रहा है। मसला अकेले कोरोना से जंग का नहीं है। इससे पहले भी कई अवसरों पर आयुर्वेदिक औषधियों की क्लीनिकल ट्रायल की बात हमारे देश में की जाती रही है। इसका उद्देश्य कोरोना या अन्य बीमारियों की रोकथाम से ज्यादा दुनिया में आयुर्वेद की वैज्ञानिकता प्रमाणित करना है। सवाल है कि क्या क्लीनिकल ट्रायल से आयुर्वेद और अन्य पारंपरिक दवाओं में दुनिया का भरोसा बढ़ाया जा सकता है।

कई देशों में भारत से आयुर्वेदिक दवाओं का आयात : योग और आयुर्वेद के संबंध में हमारी सरकार और कुछ योगाचार्यों का मत है कि इन प्राचीन भारतीय पद्धतियों से जीवन साधा जा सकता है। बहुत सी वे बीमारियां जो हमारी खराब जीवनशैली की देन हैं, उनका उपचार योग से हो सकता है। साथ ही आयुर्वेद, यूनानी आदि चिकित्सा पद्धतियों का अर्थ घरेलू इलाज करना नहीं है, बल्कि इनका एक प्रामाणिक विज्ञान है। इनसे ज्यादातर रोगों का उपचार संभव है। कई देशों में भारत से आयुर्वेदिक दवाओं के आयात के बावजूद इनके खिलाफ एक बड़ा भारी मत यह है कि प्राचीन ग्रंथों के उल्लेखों और सिर्फ भरोसे के आधार पर उन दवाओं का कारोबार नहीं चल सकता, जिनके बनाने की विधि में एकरूपता न हो और इंसानों पर जिनके असर व दुष्प्रभाव को मापने का कोई जरिया न हो। यही वजह है कि मौजूदा कायदे-कानूनों के कारण वहां चिकित्सक इन्हें आजमाने से कतराते हैं। इन्हीं वजहों से अतीत में दर्जनों बार भारतीय आयुर्वेदिक कंपनियों की दवाओं को निर्माण में लापरवाही या उनमें सीसा, मरकरी आदि हैवी मेटल्स, कीटनाशक या आर्सेनिक जैसे जहर की भारी-भरकम मात्रा होने के आधार पर काफी रुखाई के साथ लौटाया गया है।

दुनिया पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियों को आजमाना चाहती है : आयुर्वेद कहता है कि उसकी औषधियों में स्वर्ण, रजत आदि की भस्म के रूप में हैवी मेटल्स की उपस्थिति का आधार प्राचीन ग्रंथों के संदर्भ हैं। लेकिन पश्चिमी देशों की फार्मा लॉबी इन दवाओं की क्लीनिकल ट्रायल के अभाव में इन्हें संदिग्ध बताती है। यह सब कुछ तब हो रहा है, जब दुनिया पश्चिमी शैली की ऐलोपैथिक चिकित्सा पद्धति की महंगाई और उन दवाओं के दुष्प्रभावों से आजिज आकर इलाज की पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियों को आजमाना चाहती है। लेकिन इससे पश्चिमी फार्मा इंडस्ट्री के किले में सेंध लगती है। लिहाजा विश्व स्वास्थ्य संगठन भी इस पर ज्यादा कुछ नहीं करा रहा।

एलोपैथिक उपचार पद्धति से तुलना करने पर अनेक ऐसे कारण हैं जो आयुर्वेद के भरोसे को बढाने में मददगार साबित नहीं होते हैं। वैसे वर्ष 2014 में जब मंत्रिमंडल विस्तार में आयुर्वेद को संरक्षण प्रदान करने वाले आयुष विभाग को पहली बार मंत्रालय स्तरीय जगह दी गई तो इसकी उम्मीद जगी कि अब आयुर्वेद के विस्तार में आ रही बाधाओं को दूर कर लिया जाएगा।

[असिस्टेंट प्रोफेसर, बेनेट यूनिवर्सिटी, ग्रेटर नोएडा]