[राहुल लाल]। भारत के चंद्रयान-2 मिशन का मकसद चंद्रमा के प्रति जानकारी जुटाना और ऐसी खोज करना है, जिससे भारत के साथ-साथ पूरी मानवता को लाभ हो। चंद्रयान-2 खोज के एक नए युग को बढ़ावा देने, अंतरिक्ष के प्रति हमारी समझ बढ़ाने, प्रौद्योगिकी की प्रगति को बढ़ावा देने, वैश्विक तालमेल को आगे बढ़ाने और खोजकर्ताओं तथा वैज्ञानिकों की भावी पीढ़ी को प्रेरित करने में सहायक साबित होगा। यह पहला भारतीय अभियान है, जो स्वदेशी तकनीक से चंद्रमा की सतह पर उतारा जाएगा। इस मिशन की सफलता से यह साफ हो जाएगा कि हमारे वैज्ञानिक किसी के मोहताज नहीं हैं।

दक्षिणी ध्रुव का महत्व
इसरो के अनुसार चंद्रयान-2 चांद के दक्षिणी ध्रुव क्षेत्र में उतरेगा, जहां अब तक कोई देश नहीं पहुंच पाया है। उस इलाके से जुड़े जोखिमों के कारण कोई भी अंतरिक्ष एजेंसी दक्षिणी ध्रुव पर नहीं उतरी है। अधिकांश मिशन भूमध्य चंद्ररेखा के आसपास गए हैं, जहां चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव की तुलना में सपाट जमीन है। चंद्रमा का दक्षिणी ध्रुव विशेष रूप से दिलचस्प है, क्योंकि इसकी सतह का बड़ा हिस्सा उत्तरी ध्रुव की तुलना में अधिक छाया में रहता है। स्थायी रूप से छाया में रहने वाले इन क्षेत्रों में पानी होने की संभावना है। इसके अतिरिक्त चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुवीय क्षेत्र के ठंडे क्रेटर्स में प्रारंभिक सौर प्रणाली के लुप्त जीवाश्म रिकॉर्ड मौजूद हैं। ऐसे में इस क्षेत्र से भारत नई खोज एवं जानकारियां एकत्र कर सकेगा। चंद्रयान-1 की खोजों को आगे बढ़ाने के लिए चंद्रयान-2 को भेजा गया है। चंद्रयान-1 के खोजे गए पानी के अणुओं के साक्ष्यों के बाद आगे चांद की सतह पर, सतह के नीचे और बाहरी वातावरण में पानी के अणुओं के वितरण की सीमा का अध्ययन करने की जरूरत है।

पानी की खोज पर बल क्यों
पानी की मौजूदगी चांद के दक्षिणी ध्रुव पर भविष्य में इंसान की उपस्थिति के लिए फायदेमंद हो सकती है। चंद्रमा पर पानी पृथ्वी की तरह स्वतंत्र रूप में उपलब्ध होने की संभावना नहीं है, बल्कि वहां पानी ठोस बर्फ के रूप में मिल सकता है। इसका कारण है, वहां वायुमंडल नहीं है। अगर चंद्रमा पर पानी मिलता है तो यह एक बहुत बड़ी उपलब्धि होगी। उस पानी का प्रयोग ईंधन के रूप में हो सकेगा। जल को अपघटित कर हाइड्रोजन और ऑक्सीजन के रूप में तरल ईंधन का प्रयोग क्रायोजेनिक इंजन में भी हो सकेगा। इसी तरह पानी का उपयोग चंद्रमा पर भविष्य में अंतरिक्ष यात्रियों के श्वसन के लिए जरूरी ऑक्सीजन निर्माण के लिए भी हो सकेगा। पृथ्वी से चंद्रमा की औसत दूरी 3 लाख 84 हजार किलोमीटर है। ऐसे में चंद्रमा भविष्य में हम लोगों के लिए सुदूरवर्ती स्पेस कार्यक्रमों के लिए लांचिंग पैड के रूप में भी कार्य कर सकेगा।

चंद्रमा की अहमियत
चंद्रमा पृथ्वी का नजदीकी उपग्रह है, जिसके माध्यम से अंतरिक्ष में खोज के प्रयास किए जा सकते हैं और इससे संबंधित आंकड़े एकत्र किए जा सकते हैं। स्टीफन हॉकिंग ने कहा था, अंतरिक्ष में जाए बिना मानव प्रजाति का कोई भविष्य नहीं होगा। ऐसे में चंद्रमा डीप स्पेस प्रोग्राम के लिए जरूरी तकनीकी परीक्षण केंद्र के रूप में उपयोगी हो सकेगा। इसके अतिरिक्त चंद्रमा पर भारी मात्र में खनिज संसाधनों की भी संभावना है। चंद्रयान-2 लार्ज एरिया सॉफ्ट एक्स-रे स्पेक्ट्रोमीटर के द्वारा मैग्निशियम, एल्युमीनियम, सिलिकॉन, कैल्सियम, टाइटेनियम, आयरन और सोडियम जैसे तत्वों की मौजूदगी का भी पता लगाएगा।

हीलियम-3 स्वच्छ ऊर्जा का स्रोत
स्वच्छ ऊर्जा अर्थात ग्रीन एनर्जी के लिए तरस रही दुनिया के लिए भारत का चंद्रयान-2 उम्मीद की एक नई किरण साबित हो सकता है। दरअसल भारत की नजर चंद्रमा पर बड़ी मात्रा में पाए जाने वाले एक अनमोल खजाने हीलियम-3 पर है। इस खजाने की खोज की दृष्टि से भी चंद्रमा का दक्षिणी ध्रुव महत्वपूर्ण है। हीलियम-3 पर भारत की नजर काफी पहले से है। वर्ष 2006 में इसरो के तत्कालीन चेयरमैन माधवन नायर ने जोर देकर कहा था कि चंद्रयान-1 चंद्रमा की सतह पर हीलियम-3 की तलाश करेगा। वर्तमान इसरो चेयरमैन के. सिवन ने भी कहा है कि जिस देश के पास ऊर्जा के इस स्रोत को चांद से धरती पर लाने की क्षमता होगी, वह इस पूरी प्रक्रिया पर राज करेगा। इस तरह भारत हीलियम-3 की खोज कर चांद यात्र का वैश्विक नेतृत्वकर्ता बन सकता है।

500 साल की ऊर्जा जरूरतें हो सकती हैं पूरी
चंद्रमा पर हीलियम-3 होने की पुष्टि मशहूर भूविज्ञानी हैरिसन श्मिट ने 1972 में अपोलो-17 मिशन के चांद से लौटने के बाद की थी। नासा के अनुसार चंद्रमा पर 10 लाख मीट्रिक टन हीलियम-3 मौजूद है। पृथ्वी का मैग्नेटिक फील्ड एरिया इसे सूर्य से धरती की सतह पर पहुंचने से रोकता है, लेकिन चंद्रमा का कोई मैग्नेटिक फील्ड एरिया नहीं है। इसलिए सूर्य की सौर वायु से लगातार उत्सर्जित हो रहे हीलियम-3 को चांद की सतह लगातार अवशोषित कर रही है। अगर चंद्रमा पर उपलब्ध हीलियम-3 का एक चौथाई हिस्सा भी लाया जाए तो पृथ्वी की 500 साल की ऊर्जा जरूरतों को पूरा किया जा सकता है। सबसे महत्वपूर्ण यह है कि हीलियम-3 का परमाणु रिएक्टरों में प्रयोग करने पर परमाणु कचरे का भी उत्सर्जन नहीं होता।

तकनीकी दक्षता
15 जुलाई को इसरो ने एक तकनीकी गड़बड़ी के कारण 56 मिनट 54 सेकेंड पहले काउंटडाउन रोक कर चंद्रयान-2 के प्रक्षेपण को स्थगित कर दिया था। आखिरी वक्त पर कमियों का पता लगाकर उन्हें दूर कर लेना इसरो की तकनीकी दक्षता को ही प्रतिबिंबित करता है। स्पष्ट है कि अंतिम समय में प्रक्षेपण पर रोक लगाना अंतरिक्ष अभियानों में सामान्य है। प्रक्षेपण से पहले इस तरह की विसंगतियों का पता लगाने और उन्हें सुधारने की क्षमता से इसरो की विश्वसनीयता दोबारा साबित हुई है।

इसरो के बिना डिजिटल इंडिया संभव नहीं
कई बार इसरो की आलोचना की जाती है कि जब देश गरीबी, बेरोजगारी जैसी समस्याओं से जूझ रहा है, तब स्पेस कार्यक्रम में इतना बड़ा खर्च क्यों किया जाता है? दरअसल ऐसे आलोचक तकनीक की क्षमताओं की अनदेखी कर रहे हैं। आज हमारा संपूर्ण कम्युनिकेशन सिस्टम और जीवनशैली इसरो के उपग्रहों के द्वारा ही संचालित है। उदाहरण के लिए भारत ने हाल ही में ओडिशा में आए खतरनाक चक्रवात का सुरक्षित मुकाबला इसरो के उपग्रहों से प्रेषित सूचनाओं के आधार पर ही किया है। डिजिटल इंडिया इसरो के उपग्रहों के बिना संभव नहीं है।

चंद्रयान-2 मतलब हेवी साइंस मिशन
आज इसरो सस्ते में दूसरे देशों का सफल उपग्रह प्रक्षेपण कर विदेशी मुद्रा का अर्जन भी कर रहा है। इसरो ने चंद्रयान-2 को हेवी साइंस मिशन भी कहा है, क्योंकि यह मिशन न केवल हमारे टेलीकम्युनिकेशन सिस्टम से संबंधित है, अपितु यह विज्ञान के विकास में मानवता को महत्वपूर्ण सहयोग भी देगा। भारत की अंतरिक्ष से संबंधित क्षमताएं परिपक्व स्तर पर पहुंच चुकी हैं, जिसके कारण चंद्रयान-2 जैसे अभियान की आकांक्षा अब यथार्थवादी हो रही है। चंद्रयान-2 ने भारतीयों को कल्पनाओं के भी पंख दे दिए हैं। इसलिए यह स्वाभाविक ही है कि भारत जोश के साथ चंद्रमा तथा अन्य दूरस्थ पिंडों का अन्वेषण करना चाहता है, ताकि उनकी उत्पत्ति तथा विकास से जुड़े मूलभूत प्रश्नों के हल से मानवीय जीवन के लिए नवीन संभावनाओं को खोजा जा सके।

राहुल लाल
(सदस्य, भारत-यूरोपीय यूनियन सांस्कृतिक परिषद)