[ डॉ. एके वर्मा ]: असहमति की संवैधानिक आधारशिला पर स्थापित भारतीय लोकतंत्र की एक बड़ी खूबी यह है कि जब भी देश पर कोई गंभीर संकट आता है तो पूरा देश सुरक्षा और प्रतिरक्षा के मुद्दों पर एक स्वर में बोलता है। उड़ी, पठानकोट के जख्म से हम उबरे भी नहीं थे कि पाकिस्तान प्रायोजित पुलवामा आतंकी हमले ने देश को शोक, आक्रोश, उत्तेजना और प्रतिशोध की ज्वाला में धधका दिया है। एक स्वर में पाकिस्तान से बदले की मांग उठ रही है जो अत्यंत स्वाभाविक है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्पष्ट शब्दों में भारत के कड़े रुख का इजहार कर दिया है और सेना को इसके लिए अधिकृत भी कर दिया है, लेकिन इस कठिन अवसर पर हम सभी को जोश में होश नहीं खोना है। क्या होगा सेना का जवाब, इसे हमें मीडिया में चर्चा का विषय नहीं बनाना चाहिए। नीति कहती है कि शत्रु पर उस समय प्रहार करना चाहिए जब वह उसका पूर्वानुमान न लगा सके। इस समय पाकिस्तान संभावित भारतीय प्रतिक्रिया के लिए पूरी तरह तैयार होगा। कोई भी कार्रवाई करने से पूर्व हमें आकलन करना जरूरी है कि किस प्रकार की कार्रवाई से हमें न्यूनतम और पाकिस्तान को अधिकतम नुकसान हो। 

देश के विभिन्न शहरों और कस्बों में हमारे लिए भावनात्मक एवं उत्तेजक प्रतिक्रिया करना आसान है, लेकिन सीमा पर तैनात वीर जवानों के बलिदानों का मूल्य चुकाना कठिन ही नहीं, नामुमकिन होता है। प्रत्येक युद्ध का एक अंत होता है और फिर दोनों ओर स्थितियां धीरे-धीरे सामान्य हो जाती हैं, लेकिन शहीदों के परिवार जिस अपूरणीय क्षति के साथ जीवन जीने को विवश होते हैं, उन्हें समाज भूल जाता है। वर्ष में एक बार हम सब उन शहीदों को याद जरूर करते हैं, लेकिन शहीदों के परिवारों के लिए परिस्थितियां फिर कभी भी सामान्य नहीं होतीं।

यह भारत का दुर्भाग्य है कि उसे स्वतंत्रता के साथ-साथ पाकिस्तान जैसा एक नया और दुष्ट पड़ोसी भी मिला। शुरू से ही पाकिस्तान का रुख बहुत ही शत्रुतापूर्ण एवं नकारात्मक रहा है। 1971 में पूर्वी-पाकिस्तान को खोने के बाद से उसकी पूरी रणनीति छद्म युद्ध की हो गई। यह अफसोस की बात है कि पिछले 50 वर्षों में भारत ने उसकी कोई काट नहीं खोजी। हम हमेशा पाकिस्तान के प्रति मित्रतापूर्ण और सकारात्मक रुख रखते रहे और इस उम्मीद में जीते रहे कि शायद पाकिस्तान का दृष्टिकोण बदल जाए। बदले में पाकिस्तान हमेशा हमें जख्म देता रहा। कभी सैन्य हमले से तो कभी आतंकियों की वारदातों से, लेकिन भारत के धैर्य का यह एक परिणाम तो आया है कि पाकिस्तान को लेकर पूरे विश्व का नजरिया बदल गया है। आज ज्यादातर देश उसे आतंक को प्रश्रय देने वाले देश के रूप में देखते हैं जो पाकिस्तान के लिए न केवल शर्म की बात है वरन वह उसे आर्थिक बदहाली की और भी ले गई है। 

हालांकि हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि पाकिस्तान में वास्तव में कई पाकिस्तान हैं। वहां की सरकार, सेना, आइएसआइ और आतंकवादियों के तमाम संगठनों के अलावा एक पाकिस्तान वहां की जनता का भी है जो भारत के प्रति उनसे भिन्न दृष्टिकोण रखता है, जो भारत की उपलब्धियों को लेकर चकित है और जो भारत के विकास को प्रत्यक्ष देखना चाहती है, लेकिन यह पाकिस्तान हम कभी देख ही नहीं पाते। पाकिस्तानी सरकार के कार्यों, अखबारों और टीवी में वह पाकिस्तान कभी दिखाई नहीं देता। इसलिए हमें पाकिस्तान की नापाक हरकतों का प्रत्युत्तर देने के लिए इसका बहुत ध्यान रखना होगा कि जहां हम पाकिस्तानी सरकार, सेना, आइएसआइ और आतंकवादियों को चोट पहुंचाएं वहीं पाकिस्तान की अमन पसंद जनता का भारत के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण न खोएं। यह इसलिए और भी जरूरी है कि यदि कभी आगे चल कर वृहत्तर भारत की अवधारणा सार्थक होती है तो पाकिस्तानी जनता का भारतीय जनता और भारतीय लोकतंत्र से ताल-मेल भी बनाया जा सके।

जब पुलवांमा जैसे कांड होते हैैं तब हम सबके सब्र का बांध जैसे टूट सा जाता है। पूरा देश सेना के संभावित कदमों पर चर्चा करता रहेगा, लेकिन यह जरूर है कि सेना को त्रिआयामी रणनीति अपनानी होगी। उसे तात्कालिक, अल्पकालिक और दीर्घकालिक कदम उठाने होंगे। पाकिस्तान के बारे में और भी कई संवेदनशील कारक हमारे देश के अंदर और बाहर मौजूद हैं। उनकी अनदेखी भी नहीं की जा सकती। 

पाकिस्तानी लोकतंत्र तो एक छद्म लोकतंत्र है जिसमें सरकार पूर्णत: सेना और आतंकियों के चंगुल में है, लेकिन भारत को तो विशुद्ध लोकतांत्रिक तरीके से ही पाकिस्तान और उससे जुड़े अन्य अनेक पहलुओं से निपटना है। लोकतंत्र की जरूरत है कि सरकार और सेना के इस प्रयास को जनता केसभी वर्गों का पूर्ण समर्थन हो। भावनाओं की अभिव्यक्ति में प्राय: कुछ अति-उत्साही युवक और संगठन तोड़-फोड़ और हिंसक विरोध-प्रदर्शन पर उतारू हो जाते हैं जिसमें वे अपने ही साधनों को नुकसान पहुंचाते हैं और लोकतांत्रिक व्यवस्था पर एक प्रश्न-चिन्ह लगा देते हैं। हमें इसमें से बदलाव करना होगा। अपने विरोध और प्रतिक्रिया को सकारात्मक बनाना होगा। इसके लिए हमें ज्यादा काम करना होगा। सामाजिक सद्भाव कायम रखना होगा। अपनी आमदनी का एक हिस्सा शहीदों के लिए बने कोष में लगातार दान करना होगा और गंभीर एवं शालीन विमर्श द्वारा पाकिस्तान जैसी समस्या का स्थाई समाधान भी ढूंढ़ना होगा।

चूंकि प्रधानमंत्री ने पहले ही कहा है कि 130 करोड़ देशवासियों का खून खौल रहा है इसलिए संकट की इस घड़ी में हमसे कोई भी ऐसा काम न करे जिससे समाज के किसी भी वर्ग में उपेक्षित या असहज होने का भाव आए। हां, यह जरूर है कि हमें राष्ट्र विरोधी ताकतों और विदेशी एजेंटों से सावधान रहने की जरूरत होगी। यह इसलिए और भी उल्लेखनीय है, क्योंकि लोकसभा चुनाव सिर पर हैं। यह भी अच्छा है कि विपक्षी दल चुनावी नफा-नुकसान को इस राष्ट्रीय संकट से नहीं जोड़ रहे हैैं।

जहां अमेरिका में सरहद की समस्या पर राष्ट्रपति को विपक्षी डेमोक्रेटिक पार्टी के विरोध के चलते आपातकाल लगाना पड़ा वहीं भारत में सरहद पर उपजी समस्या के समर्थन में प्रधानमंत्री मोदी को संपूर्ण विपक्ष का पूरा सहयोग मिला। अब देखना है कि सरकार राजनयिक, सैनिक, आतंकी, वैश्विक, आर्थिक, राजनीतिक और अन्य अनेक पहलुओं पर भविष्य में किस तरह की तात्कालिक, अल्पकालिक और दीर्घकालिक रणनीतियां अपनाती है जिससे पाकिस्तान की रोज-रोज की किच-किच से हमें निजात मिल सके और हम विकास एवं राष्ट्र-निर्माण के काम में शांति से मशगूल हो सकें।

( लेखक सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ सोसायटी एंड पॉलिटिक्स के निदेशक हैैं )