अभिषेक कुमार सिंह। हाल में चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के भारत दौरे के वक्त तमिलनाडु के शहर मामल्लपुरम में 12 अक्टूबर, 2019 की सुबह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब सैर को पहुंचे तो समुद्र तट पर यहां-वहां बिखरे कचरे को देखकर स्वच्छता के प्रति उन्हें अपना कर्तव्य एक बार फिर याद आ गया। स्वच्छ भारत अभियान के ब्रांड एंबेसडर पीएम मोदी ने इस तरह कचरे की जो सफाई की, उसका एक वीडियो मीडिया में कुछ दिनों तक छाया रहा और देश भर से लोगों ने प्रधानमंत्री के इस कार्य की सराहना की।

बनेगी मिसाल

उम्मीद है कि प्रधानमंत्री का यह कृत्य एक अनुकरणीय मिसाल बन जाएगा और आम जनता को साफ-सफाई की प्रेरणा देगा, लेकिन यहां एक अहम सवाल पैदा होता है कि पांच साल पहले देश में शुरू किए गए ‘स्वच्छ भारत अभियान’ का आखिर हासिल क्या है? क्यों प्रधानमंत्री को बार-बार स्वच्छता के आग्रह को लेकर आह्वान करने और उदाहरण देने पड़ते हैं? इससे साबित होता है कि सरकार की ओर से शुरू किए गए अभियानों के बावजूद आम जनता कई मामलों में अपनी कोई जिम्मेदारी नहीं समझती है?

स्वच्छ भारत अभियान

गौरतलब है कि पीएम मोदी ने दो अक्टूबर, 2014 को ‘स्वच्छ भारत अभियान’ की शुरुआत की थी। इस मिशन का उद्देश्य देश में सार्वभौमिक स्वच्छता कवरेज को हासिल करने के प्रयासों में तेजी लाना बताया गया। इसके लिए एक शुरुआती समयसीमा इस साल दो अक्टूबर, 2019 तय की गई थी, जिसके तहत देश को खुले में शौच से मुक्त कराना था। इसके लिए देश में 11 करोड़ से अधिक शौचालय बनाए गए हैं और वर्तमान में ग्रामीण स्वच्छता कवरेज भारत के 99 प्रतिशत गांवों तक पहुंच गया है, जो चार साल पहले तक महज 38 प्रतिशत ही था।

मूलभूत सुविधाएं देना पहली प्राथमिकता

इसमें कोई संदेह नहीं कि आबादी के बोझ से जूझते हमारे देश में हरेक नागरिक को मूलभूत सुविधाएं देना पहली प्राथमिकता होनी चाहिए। इन सुविधाओं में पीने का साफ पानी, शोधित सीवरेज, कचरे का निष्पादन, 24 घंटे बिजली आपूर्ति, सुचारु यातायात और बेहतर चिकित्सा हासिल करना जैसी चुनौतियां शामिल हैं, पर इनसे भी ज्यादा जरूरी है स्वच्छ माहौल, जो तभी मिल सकता है जब सरकार, स्थानीय प्रशासन और हर शहरी की मानसिकता साफ-सफाई को लेकर एकदम स्पष्ट हो। इसी मकसद से बीते देश में कुछ वर्षो से स्वच्छता सर्वेक्षण कराया जा रहा है, ताकि इसका आकलन हो सके कि क्या हमारे शहरों, गांवों और कस्बों में साफ-सफाई को लेकर कोई जागरूकता आई है और क्या लोग स्वेच्छा से, सरकार और प्रशासन के अभियानों और दंडकारी उपायों के बिना अपने आसपास के माहौल को स्वच्छ रखने में दिलचस्पी रखते हैं?

स्वच्छता सर्वेक्षण-2019

ऐसे सर्वेक्षणों में देश के चुनिंदा शहरों ने मिसाल कायम की है। जैसे साफ-सफाई की तमाम कसौटियों पर मध्य प्रदेश का इंदौर लगातार तीसरी बार पहले नंबर पर घोषित किया गया है। ध्यान रखना होगा कि 28 दिनों की अवधि में 64 लाख लोगों के सीधे फीडबैक से तैयार स्वच्छता सर्वेक्षण-2019 में देश के जिन 4237 शहरों का सर्वेक्षण किया गया था। हैरानी की बात यह है कि मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड और महाराष्ट्र के बाहर सफाई के पुरस्कार हासिल करने वाले शहरों की संख्या कम ही दिखती है।

क्रांतिकारी बदलाव

मामल्लपुरम के सागर तट पर फैली गंदगी के हालिया प्रकरण को देखकर लगता है कि साफ-सफाई को लेकर हमारी सरकारों, प्रशासन और खुद नागरिकों में इसे लेकर कोई उलझन है जिससे स्वच्छता कोई बड़ा मुद्दा नहीं बन पा रहा है। इसे लेकर कोई उत्सुकता भी नहीं दिख रही है कि हमारे शहर और गांव-कस्बे साफ-सफाई की पहलकदमियों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लें और साबित करें कि स्वच्छता को लेकर उनकी मानसिकता में क्रांतिकारी बदलाव आ गया है।

सरकार पर सब दारोमदार 

सवाल है कि क्या साफ-सफाई का जिम्मा सिर्फ सरकार और प्रशासन के सिर ही होना चाहिए। दरअसल भारतीय जनमानस में सफाई को लेकर एक खास किस्म की अड़चन दिखाई देती है। हमारे देश में ज्यादातर लोगों का जोर सफाई के बजाय ‘पवित्रता’ पर रहा है, जो या तो ईश्वर प्रदत्त होती है या आंतरिक उपायों से हासिल की जाती है। अपने परिवेश को साफ-सुथरा रखने के बजाय इसका जोर भीड़ से अलग दिखने पर है। कहीं न कहीं हमारे अवचेतन में यह भी बैठा हुआ है कि सफाई हमारा नहीं, किसी और का यानी सरकार का काम है।

नहीं समझा कोई मुद्दा

उसी सोच का नतीजा है कि वर्ण व्यवस्था ने एक खास वर्ग को यह काम सौंप कर छुट्टी पा ली और बाकी समाज के लिए साफ-सफाई कोई मुद्दा ही नहीं रहा। कहने को तो आज वर्ण व्यवस्था के बंधन कुछ ढीले हुए हैं, लेकिन इस परजीवी मानसिकता से निजात आज भी नहीं मिली है कि हमारे सामने पड़ा कचरा उठाना किसी और की जिम्मेदारी है, बल्कि शहरों में तो ऐसे नजारे आम हैं जहां तमाम सोसायटियों के पीछे उस कचरे के अंबार लगे हैं जो उन्हीं सोसायटियों से निकलता है।

पल्‍ला नहीं झाड़ सकते

हालांकि इस मामले में सरकारों और प्रशासनिक व्यवस्थाओं, जैसे कि नगर पालिकाओं-निगमों को एकदम बरी नहीं किया जा सकता है। यह मानने से इन्कार नहीं होना चाहिए कि अब तक सरकारें भी इस मामले में जरा ज्यादा ही लापरवाह रही हैं। वे नगर निगमों को सफाई का पैसा तो देती रहीं, लेकिन इस बारे में कोई प्रेरणा नहीं जगा पाईं कि उन्हें इस पैसे का सही इस्तेमाल भी करना है। हालांकि मौजूदा केंद्र सरकार ने स्वच्छता मिशन के तहत ग्रामीण और शहरी, दोनों मोर्चो पर सफाई के अभियान शुरू किए। उसने स्वच्छ भारत ग्रामीण मिशन के तहत गांवों में हर घर में शौचालय बनाने और देश को खुले में शौच मुक्त बनाने का लक्ष्य रखा तो स्वच्छ भारत शहरी मिशन में घरों के अलावा सार्वजनिक स्थानों पर भी शौचालय और कूड़ा-कचरा प्रबंधन पर फोकस किया।

पीएम की अपील 

पांच साल पहले 2014 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नागरिकों से आह्वान किया था कि वे देश को साफ-सुथरा बनाने में सरकार की मदद करें। उन्होंने इसके लिए 2019 यानी मौजूदा वर्ष की डेडलाइन भी सामने रखी थी, क्योंकि यह वर्ष गांधी जी की 150वीं जयंती का है। उनका मत था कि 2019 तक सारा देश साफ-सुथरा हो जाए, क्योंकि गांधी जी को सफाई बहुत पसंद थी। इसके लिए उन्होंने यह अपील भी की थी कि देश का हर नागरिक साल में कम से कम सौ घंटे सफाई को दे। उन्होंने कहा था कि जिस तरह दिवाली पर हम अपने घर को साफ करते हैं, क्यों न पूरे देश को साफ रखने का प्रयास करें। अगर देश साफ रहेगा तो बीमारियों का प्रसार घटेगा। इससे लोगों के इलाज पर आने वाला खर्चा बचेगा। भारत को सफाई के मामले में विश्व के स्तर पर पहुंचना होगा। देश के पचास पर्यटन स्थलों में सफाई की व्यवस्था विश्व स्तर की करनी होगी, तभी भारत के बारे में दुनिया के लोगों की धारणा बदलेगी और हमारा पर्यटन बढ़ेगा।

बदलनी होगी सोच

बेशक हमारी सरकार और प्रधानमंत्री के इरादे सही दिशा में हैं, पर सवाल है कि क्या उनके आह्वानों का असर हमारे शहरों, शहरवासियों से लेकर गांव-देहात में पड़ सका है? स्वच्छता सर्वेक्षण की इस साल की सूची इस मानसिकता की तस्वीर को काफी हद तक साफ करती है। उम्मीद है कि सफाई को लेकर हमारी सोच को लगे जाले इससे साफ हो सकेंगे।

(लेखक संस्था एफआइएस ग्लोबल से संबद्ध हैं)

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