अभिषेक कुमार सिंह। मौसम का बदलना नया नहीं है। हमारी पृथ्वी इस मामले में अनूठी है कि इसके ज्यादातर हिस्सों में ऋतुओं का आना-जाना लगा रहता है। हालांकि कुछ हिस्से ऐसे भी हैं जहां मौसम बमुश्किल बदलता है। कुछ इलाकों में सदा बर्फ जमी रहती है तो कुछ इलाके हमेशा सूरज की गर्मी से तपते रहते हैं। भारत जैसे ऊष्ण-कटिबंधीय देशों में गर्मी की अधिकता रहती है तो भी जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड और पूवरेत्तर राज्यों में मौसम ज्यादातर वक्त ठंडा और खुशगवार रहता है। हमारे देश के इन हिस्सों की तरह ही दुनिया के कुछ देश अपनी ठंड के लिए ज्यादा मशहूर रहे हैं, लेकिन ये खुशगवारी अब गुम हो रही है। जो इलाके बर्फ से ढके-छिपे रहते थे, अब वहां भी प्रचंड गर्मी अपना असर दिखा रही है।

मानसून के जिस सीजन में बारिश की बौछारों से सराबोर रहने वाले हमारे देश का उत्तरी इलाका इस साल मध्य जून से लेकर जुलाई के शुरुआती हफ्ते में बुरी तरह तपता रहा है, वैसे ही कनाडा से लेकर फिनलैंड के उत्तरी आर्कटिक इलाके ऐतिहासिक उच्च तापमान की चपेट में आए हैं। इन मौसमी घटनाओं ने एक बार फिर आम लोगों, विज्ञानियों और पर्यावरणविदों के माथे पर पसीना ला दिया है। ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन की कठिन चुनौतियों को हम फिर अपने सामने उपस्थित देख रहे हैं और खुद से पूछ रहे हैं कि आखिर पारा कहां जाकर रुकेगा।

खबर ये गर्म है : गर्मी को लेकर हाल की सूचनाओं पर गौर करें तो पता चलता है कि भारत की राजधानी दिल्ली में पहली जुलाई को बीते एक दशक का कीíतमान तापमान के मामले में बन गया। उस दिन पारा 43.1 डिग्री तक पहुंचा था। करीब एक दशक में इसे गर्मी का नया रिकॉर्ड मानकर दर्ज किया गया। यही हाल मानसून को तरसते देश के मध्य और उत्तरी राज्यों जैसे कि पंजाब, हरियाणा, राजस्थान और पश्चिमी उत्तर प्रदेश का रहा। इन इलाकों में सामान्य से चार से छह डिग्री सेल्सियस से ज्यादा तापमान मध्य जून से जुलाई के आरंभ में दर्ज किया गया।

मौसम विज्ञान की परिभाषाओं में देखें तो इतना ऊंचा तापमान लू (हीटवेव) और भीषण लू (सीवियर हीटवेव) पैदा करता है। इन उत्तरी राज्यों में पाकिस्तान से आती गर्म हवाएं भीषण लू का कारण बनी हैं, पर सवाल है कि अमेरिका, कनाडा और फिनलैंड जैसे ठंडे मुल्कों में क्या हुआ है। अमेरिका में वाशिंगटन और ऑरेगन तो कनाडा के ब्रिटिश कोलंबिया में तापमान ऐतिहासिक ऊंचाई पर पहुंचा है। कनाडा के ब्रिटिश कोलंबिया के लिटन गांव में हाल में तापमान करीब 50 डिग्री सेल्सियस दर्ज किया गया। इससे वहां अचानक करीब 150 लोगों की मौत हो गई। कनाडा के इन इलाकों के निवासियों को इतनी गर्मी का कभी सामना नहीं करना पड़ा था। कनाडा का मौसमी इतिहास बताता है कि वहां किसी भी इलाके में तापमान 45 के पार पहुंचा ही नहीं था। ऐसे में प्रचंड तापमान से पहली बार सामना होने पर लोगों का शरीर जवाब दे गया और वे या तो बीमार पड़ गए या उनकी मौत की आशंका पैदा हो गई। यही हाल अमेरिका के पश्चिमी इलाकों का हुआ है। वाशिंगटन और ऑरेगन जैसे इलाकों में आर्कटिक तथा कैलिफोíनया से आई गर्म हवाओं ने हीटवेव यानी लू पैदा कर दी। सुनने में आश्चर्यजनक लग सकता है, पर यूरोप खासकर पूर्वी और मध्य यूरोप के कई देशों के अलावा रूस, जर्मनी, इटली, फिनलैंड और यहां तक कि सबसे ठंडे इलाकों में से एक माने जाने वाले साइबेरिया में भी हीटवेव चल रही है।

क्या हैं चुनौतियां : मौसम परिवर्तन से बारिश होती है, बर्फ पड़ती है, नदियों-झीलों और महासागरों में पानी आता है। भारतीय मानसून को इसका क्रेडिट दिया जाता है कि चार महीने की इस मौसमी परिघटना में दुनिया का तापमान काबू में रखने की अद्भुत क्षमता है। इसी तरह दुनिया के विभिन्न हिस्सों में पड़ने वाली ठंड और गर्मी से जलवायु संतुलित रहती है। यही संतुलन धरती पर जीवनयोग्य माहौल तथा फसल-चक्र को कायम रखने में मदद करता है, पर बीते कुछ समय से मौसम अपना विकराल रूप दिखा रहे हैं। बारिश होती है तो जरूरत से ज्यादा होती है, गर्मी पड़ती है तो कीíतमान बना देती है। मौसम विज्ञान की परिभाषा में इसे एक्सट्रीम वेदर कंडीशन (किसी मौसमी अवस्था का चरम) कहा जाता है। जरूरत से ज्यादा गर्मी हो, औसत से कम बारिश हो, ज्यादा भूस्खलन हो, भारी वर्षा हो, ओले पड़ने और बादल फटने की घटनाएं बढ़ जाएं तो इन सारी घटनाओं को मौसम के बदलते व्यवहार के आधार पर एक्सट्रीम वेदर कंडीशन की श्रेणी में रखा जाता है। इसी तरह यदि तीन या दस दिन की अवधि में होने वाली बारिश कुछ ही घंटों में हो जाए तो इस अवस्था को भी इसी श्रेणी में रखा जाता है। पिछले कुछ वर्षो से चेन्नई, मुंबई, दिल्ली-गुरुग्राम से लेकर जम्मू-कश्मीर और उत्तराखंड के कई इलाके एक्सट्रीम वेदर कंडीशंस का सामना करने लगे हैं।

पारिस्थितिकी तंत्र को नुकसान : मौसम के बदलावों पर नजर रखने वाली गैर-सरकारी संस्था स्काईमेट के मुताबिक 1970 से 2005 के बीच के 35 सालों में एक्सट्रीम वेदर से जुड़ी 250 घटनाएं हुई थीं, लेकिन 2005 से 2020 के मध्य ऐसी घटनाओं की संख्या 150 रही। इससे साबित होता है कि भारत समेत पूरी दुनिया में एक्सट्रीम वेदर की घटनाओं में कई गुना बढ़ोतरी हो गई है। इन घटनाओं का नुकसान मोटे तौर पर बादल फटने, बाढ़ आने, बेइंतहा गर्मी या सूखे के रूप में नजर आते हैं, पर दीर्घकालिक नजरिये से ये और भी ज्यादा नुकसान हमारे पर्यावरण और पारिस्थितिकी तंत्र को पहुंचा रहे हैं। मिसाल के तौर पर शहरों में बाढ़ की घटनाओं में इजाफे के बावजूद तेजी से घटता जलस्तर यह साबित करता है कि एक्सट्रीम वेदर कंडीशन का कितना खामियाजा धरती उठा रही है। इसे ऐसे समझा जा सकता है कि यदि तीन दिनों की बारिश एक झटके में तीन घंटे में हो जाए तो सारा पानी धरती की ऊपरी सतह से नालों में और फिर नदियों-समुद्रों में पहुंच जाता है। वह धरती के अंदर नहीं पहुंचता, जिससे जल स्तर में कोई इजाफा नहीं होता। विडंबना यह भी है कि ऐसा दिल्ली, मुंबई या चेन्नई जैसे महानगरों में ही नहीं हो रहा है, बल्कि असामान्य वर्षा का यह पैटर्न अब ज्यादातर राज्यों में नियमित तौर पर दिख रहा है।

बहरहाल भारी बारिश और भीषण गर्मी यानी तापमान की ऊंचाई के टूटते रिकार्ड यह सवाल उठा रहे हैं कि ऐसा क्यों हो रहा है और इसे रोका कैसे जाए? इन सवालों के जवाब बहुत सीधे हैं। अरसे से बताया जा रहा है कि 2025 तक ही दुनिया पूर्व-औद्योगिक काल से 1.5 डिग्री सेल्सियस अधिक तक गर्म हो सकती है। हाल में विश्व मौसम विज्ञान संगठन द्वारा प्रकाशित एक रिपोर्ट में दावा किया गया है कि अगर दुनिया ने अब भी पेरिस समझौते के तहत वैश्विक औसत तापमान में दो डिग्री सेल्सियस से अधिक वृद्धि न होने देने के प्रयासों पर अमल नहीं किया तो इससे भी ज्यादा खराब हालत देखने के लिए तैयार रहना होगा। समझना होगा कि जीवाश्म ईंधन (पेट्रोल-डीजल) से चलने वाली कारों के अंधाधुंध इस्तेमाल, घरों को ठंडा रखने के लिए एयर कंडीशनरों की फौज की तैनाती और ग्लोबल वॉìमग को बढ़ावा देने वाली नीतियों पर अंकुश नहीं रखने की नीति मौसमों को खतर रूप दे रही हैं। ऐसे में राहत तभी मिलेगी, जब जलवायु परिवर्तन थामने वाली कोशिशों को लंबे समय तक कायम रखा जाएगा।

अटकता-भटकता मानसून : भारतीय मौसम विभाग ने इस वर्ष सामान्य से बेहतर मानसून की भविष्यवाणी की थी। इस भविष्यवाणी के मुताबिक देश में 101-104 प्रतिशत मानसूनी बारिश का अनुमान लगाया गया था। इस दौरान औसतन 880 मिलीमीटर बारिश होने की संभावना थी। आरंभ में जब एक जून को मानसून ने केरल को छुआ तो लगा कि यह भविष्यवाणी सटीक साबित होगी। जून में देश के अलग-अलग हिस्सों में 188.5 मिलीमीटर बारिश हुई। इस हिसाब से जुलाई से सितंबर के बीच देश में 88 फीसद बारिश बची हुई है। यह सही है कि जून के आरंभ में मानसून कुछ राज्यों को छोड़कर देश के ज्यादातर हिस्सों में अपनी पहुंच बना ली, लेकिन इसके बाद मानसूनी बादलों ने दगा देना शुरू कर दिया। जून के मध्य तक आते-आते कई ऐसी स्थितियां बनीं कि देश के 72 फीसद हिस्से में सामान्य वर्षा नहीं हो पाई। कहीं ज्यादा तो कहीं न्यूनतम बारिश हुई। मानसून की दशा और दिशा बदलने में 15 जून के बाद अरब सागर से उठे चार पश्चिमी विक्षोभों ने बड़ी भूमिका निभाई। इस दौरान हालांकि बिहार जैसे राज्यों में खूब बारिश हुई, लेकिन राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, गुजरात, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, महाराष्ट्र के ज्यादातर जिलों में बादलों के दर्शन ही दुर्लभ हो गए। हाल में मौसम विभाग ने भी कहा कि दक्षिण-पश्चिम मानसून यूं तो अपने तय वक्त से दो हफ्ते पहले ही पश्चिमी राजस्थान के बाड़मेर पहुंच गया, लेकिन वहां यह ऐसे अटक गया कि न तो बारिश हो रही है और न ही बादल आगे बढ़ रहे हैं।

असल में दिल्ली, हरियाणा, पंजाब के कुछ हिस्सों, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और पश्चिमी राजस्थान तक मानसून को पहुंचाने में बंगाल की खाड़ी में होने वाले मौसमी बदलावों की अहम भूमिका रहती है। अगर बंगाल की खाड़ी में कोई मौसमी सक्रियता या मौसम के सिस्टम में कोई हलचल नहीं होती है तो बादलों को आगे ठेलने वाली पूर्वी हवाएं कमजोर पड़ जाती हैं और मानसून जहां का तहां अटक जाता है। इसके साथ ही इस साल देश के उत्तर-पश्चिम और पश्चिमी भागों में गर्म-शुष्क पछुआ हवाएं चलती रहीं, जिन्होंने मानसून की चाल को अटका दिया। देश के उत्तरी इलाकों में मानसूनी बारिश कराने में एक भूमिका हिमालय की तलहटी में बनने वाली ट्रफ लाइन की भी होती है। बादलों के बीच गर्म और ठंडी हवा के परस्पर मेल से पैदा होने वाले कम दबाव के क्षेत्र में एक सक्रिय पट्टी बनती है, जिसमें बादल बनते और तेजी से आगे खिसकते हैं। यह सक्रिय पट्टी ही ट्रफ लाइन कहलाती है। चूंकि इस वर्ष यह ट्रफ लाइन हिमालय की तरफ ज्यादा खिसक गई, इसलिए नए बादलों का बनना और आगे बढ़ना रुक गया। इससे भी मानसून अटक गया।

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