राजीव सचान। इन दिनों वे प्रतिभाशाली अभ्यर्थी चर्चा के केंद्र में हैं, जिन्होंने संघ लोक सेवा आयोग की सिविल सेवा परीक्षा में शीर्ष स्थान प्राप्त किया है। उनकी उपलब्धि को तो रेखांकित किया ही जा रहा है, यह भी बताया जा रहा है कि प्रशासनिक अधिकारी के रूप में वे समाज और देश के लिए क्या करने की आकांक्षा रखते हैं? चूंकि इस बार प्रथम तीन स्थान लड़कियों ने हासिल किए हैं, इसलिए इसे एक बड़ी उपलब्धि माना जा रहा है। यह वास्तव में एक उपलब्धि है भी। भारत में सिविल सेवा परीक्षा सबसे कठिन परीक्षा मानी जाती है और उसमें प्रतिभासंपन्न छात्र-छात्राएं ही सफल हो पाते हैं। आज जब चहुंओर इन प्रतिभाशाली छात्र-छात्राओं की चर्चा हो रही है, तब हम इसकी अनदेखी नहीं कर सकते कि अभी कल तक झारखंड की वरिष्ठ आइएएस पूजा सिंघल खबरों में छाई थीं।

पूजा सिंघल पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप हैं। इन आरोपों के अनुसार उनके चार्टर्ड अकाउंटेंट सुमन कुमार के यहां से प्रवर्तन निदेशालय यानी ईडी की छापेमारी के दौरान लगभग 20 करोड़ रुपये की नकद धनराशि बरामद की गई। ईडी ने दोनों को गिरफ्तार कर लिया है। पूजा सिंघल पर लगे आरोपों की सूची खासी लंबी है। ये आरोप कितने सही हैं या गलत, इसके लिए इंतजार करना होगा, क्योंकि जब तक अदालतें अपना फैसला नहीं सुना देतीं तब तक किसी ठोस नतीजे पर नहीं पहुंच सकते। पूजा सिंघल 2000 बैच की आइएएस हैं। उन्होंने महज 21 साल में सिविल सेवा परीक्षा में सफलता हासिल की थी। कम उम्र में आइएएस बनने के कारण उनका नाम लिम्का बुक आफ रिकाड्र्स में दर्ज किया गया था। पूजा सिंघल अपवाद नहीं हैं। रह-रहकर ऐसे भ्रष्ट अफसर सीबीआइ अथवा ईडी के शिकंजे में आते ही रहते हैं, जिन पर करोड़ों की काली कमाई करने के आरोप लगते हैं। अतीत में भी प्रशासनिक, पुलिस, राजस्व सेवा आदि के ऐसे अफसर भ्रष्टाचार में लिप्त पाए गए, जिन्होंने सिविल सेवा परीक्षा में उल्लेखनीय सफलता हासिल की थी। इन अफसरों के मामले यही बताते हैं कि नौकरशाही के भ्रष्टाचार पर लगाम नहीं लगी है। इसी तरह नेताओं के भ्रष्टाचार पर भी लगाम नहीं लगी है।

इन दिनों न जाने कितने नेताओं के खिलाफ ईडी अथवा सीबीआइ की जांच जारी है। आम तौर पर इन नेताओं की ओर से यही कहा जाता है कि उनके खिलाफ बदले की कार्रवाई की जा रही है, लेकिन यह मान लेना सही नहीं होगा कि जो यह कह रहे हैं, वे सब दूध के धुले हैं और उन पर लगे आरोपों में कहीं कोई दम नहीं। ध्यान रहे कि जिन नेताओं को उनके भ्रष्टाचार के लिए अदालतें सजा सुना चुकी हैं, वे भी यही कहते हैं कि उन्हें गलत फंसाया गया। अब तो स्थिति यह है कि भ्रष्टाचार में सजा पाए और भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों से घिरे नेताओं का खुलकर बचाव किया जा रहा है। महाराष्ट्र के मंत्री नवाब मलिक भ्रष्टाचार के आरोप में जेल में है, लेकिन उनसे इस्तीफा मांगने की कोई जरूरत नहीं समझी जा रही है। कुल मिलाकर यह एक कड़वी सच्चाई है कि नेताओं और नौकरशाहों के भ्रष्टाचार पर कोई प्रभावी लगाम नहीं लग सकी है। कई बार तो नेता और नौकरशाह मिलकर भ्रष्टाचार करते हैं। इस सिलसिले में पूजा सिंघल का मामला गौर करने लायक है। उन पर पहले भी भ्रष्टाचार के आरोप लगे थे। उनके खिलाफ कार्रवाई की अनुशंसा भी की गई, लेकिन फिर उन्हें क्लीन चिट दे दी गई।

यह सही है कि नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद केंद्र सरकार के शीर्ष स्तर पर भ्रष्टाचार पर एक बड़ी हद तक लगाम लगी है, लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि निचले स्तर के भ्रष्टाचार पर भी ऐसा ही हुआ है। अब जब मोदी सरकार ने अपने कार्यकाल के आठ साल पूरे कर लिए हैं, तब फिर उसे इस पर प्राथमिकता के आधार पर ध्यान देना ही होगा कि नेताओं और नौकरशाहों के भ्रष्टाचार पर प्रभावी लगाम कैसे लगे? मोदी सरकार ने बीते आठ वर्षों में अपनी कार्यशैली से देश की दशा-दिशा बदली है, लेकिन उसने पुलिस सुधारों की दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठाए हैं। नि:संदेह कानून एवं व्यवस्था राज्यों का विषय है, लेकिन भाजपा शासित सरकारें तो पुलिस सुधार के मामले में मिसाल कायम कर ही सकती हैं- जैसे उत्तर प्रदेश सरकार कर रही है। यह ठीक है कि पुलिस का आधुनिकीकरण हो रहा है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट के उन दिशा-निर्देशों पर अभी सही तरह से अमल नहीं हो सका है, जो उसने वर्षों पहले दिए थे। देश की जनता को पुलिस सुधारों के साथ प्रशासनिक सुधारों की भी प्रतीक्षा है।

कोई नहीं जानता कि दूसरे प्रशासनिक सुधार आयोग की रपट का क्या हुआ? देश की जनता को सबसे ज्यादा इंतजार न्यायिक क्षेत्र में सुधारों का है। यह इंतजार लंबा होता जा रहा है। अभी मुख्यमंत्रियों और उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों का जो सम्मेलन हुआ, उसमें बड़ी-बड़ी बातें तो की गईं, लेकिन उनके अनुरूप कुछ होगा, इसके आसार कम ही हैं। इसलिए कम हैं, क्योंकि वह कोलेजियम व्यवस्था खत्म होने के कोई संकेत नहीं, जिसके तहत न्यायाधीश ही न्यायाधीशों की नियुक्ति करते हैं। हालांकि 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग को असंवैधानिक करार देते समय यह माना था कि कोलेजियम व्यवस्था में कुछ दोष हैं, लेकिन वे दोष आज तक दूर नहीं हो सके हैं। इससे बड़ी विडंबना यह है कि अब न्यायाधीशों की ओर से यह कहा जाने लगा है कि यह धारणा सही नहीं कि जज ही जज की नियुक्ति करते हैं। ऐसे में सरकार को यह सुनिश्चित करना ही चाहिए न्यायिक क्षेत्र में सुधार हों।

(लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडिटर हैं)