[ एमजे अकबर ]: अरेबियन नाइट्स की कहानियां दुनिया भर में मशहूर हैं। इसके किस्सों को अमूमन हम जिन्न, जवाहरात, सुल्तान और रहस्यमयी नर्तकियों के साथ ही जोड़कर देखते हैं। मगर तड़क-भड़क के तड़के से कालजयी रचनाएं नहीं होतीं। उनके लिए कुछ ठोस और सारगर्भित सामग्र्री की दरकार होती है। शानदार अरेबियन नाइट्स में ‘द बर्मकेड्स फीस्ट’ उसकी सबसे अर्थपूर्ण कहानियों में से एक है। बर्मकेड्स को यह नाम उसके परिवार के पुरोधा खालिद इब्न बरमाक के नाम पर मिला था। वह मूल रूप से बौद्ध प्रमुख थे। बरमाक नाम प्रमुख पदवी का ही अपभ्रंश है। वे बल्ख शहर के बाशिंदे थे। उनके गुणों को देखते हुए ही उन्हें उच्च पदवी से नवाजा गया, लेकिन इससे पहले उन्हें इस्लाम कुबूल करना पड़ा था। उनका पुत्र याह्या इब्न खालिद सुल्तान हारून अल रशीद के सबसे करीबी दोस्तों में शुमार हो गया। यह परिवार इतना शक्तिशाली हो गया था कि व्यापक रूप से यह माना जाने लगा कि वह अब्बासी साम्राज्य के खलीफा से भी अमीर था।

अब इस कहानी की परतें खोलते हैं। किस्सा कुछ यूं है कि इस कुलीन परिवार के एक शख्स ने अपने महल में गरीबों के लिए एक दावत रखी। उन गरीबों को बेहद आलीशान कालीन पर बैठाया गया और उनके बीच में बैठे मेजबान ने आला दर्जे के परिधान, साफा और आभूषण धारण किए हुए थे। उसने ताली बजाकर व्यंजन परोसने का इशारा किया। नौकर तश्तरी के साथ हाजिर हुए और उन्होंने अपने मालिक से कहा कि पहला पकवान एक लजीज कबाब के रूप में पेश किया जा रहा है। प्लेट असल में खाली थी, लेकिन मेजबान ने ऐसे जाहिर किया कि उन्हें अपनी थाली में वाकई एक कबाब परोसा गया है। उसने काल्पनिक रूप से उसे अपने मुंह में रखते हुए यह जाहिर किया कि मानों वह जायकेदार कबाब का लुत्फ उठा रहा हो। गरीब और भूखे मेहमान हक्के-बक्के रह गए, लेकिन वे इस बात को लेकर डर गए कि अगर उन्होंने इसे नकारा तो उनका क्या हश्र होगा। नतीजतन वे भी उसकी नकल करते हुए खाने की तारीफ करने लगे। उनमें इसकी होड़ लग गई। फिर उन्होंने बाकायदा डकार लेकर जाहिर किया कि मानों उन्हें इससे कितनी तृप्ति मिली है।

इस कहानी के शेष भाग में उलझने की जरूरत नहीं। यह प्रयोजन सदियों तक छल-कपट की एक मिसाल के रूप में कायम हो गया जिसमें एक अमीर आदमी ने जरूरतमंद भूखे गरीबों को एक सब्जबाग दिखाया। खयाली पुलाव और भी सटीक उपमा है।

राहुल गांधी द्वारा आम चुनाव के लिए कांग्रेस की ओर से जो सबसे बड़ी पेशकश की गई है उसे इतिहास में खयाली पुलाव की सबसे बड़ी देगची कहा जाए तो कोई हैरानी नहीं होनी चाहिए। जाहिर है सब्जबाग के उनके इस शिगूफे को तुरंत लपक भी लिया गया। उनसे सवाल किया गया कि इस योजना के लिए वित्तीय संसाधनों का बंदोबस्त कैसे होगा तो राहुल गांधी ने कहा कि भविष्य में इसका ब्योरा दे दिया जाएगा। इसे टालने का क्या तुक, आखिर इस घोषणा के साथ ही इसका एलान क्यों नहीं किया जाना चाहिए? इसके कई कारण नजर आते हैं। सबसे स्वाभाविक तो यही है कि इस सवाल का कोई स्वीकार्य या विश्वसनीय जवाब ही नहीं है। तब तक तो कतई नहीं जब तक आपको भरोसा न हो कि किसी ने इस पर गणितीय माथापच्ची न की हो, लेकिन राहुल गांधी तो गणित समझते ही नहीं। किसी भी सूरत में ऐसा नहीं लगता कि कांग्र्रेस हकीकत से दो-चार होना चाहती है, क्योंकि ऐसा करने से भ्रम से भरे उसके उस गुब्बारे की हवा निकल जाएगी जिससे वह गरीबों को लुभाने की कोशिश में जुटी है।

संभव है राहुल गांधी ने यह भी सोचा हो कि वह भी अरेबियन नाइट्स के उस कुलीन शख्स की तरह सब्जबाग दिखाकर अपने हित साधकर आराम से निकल जाएंगे, क्योंकि उन्हें लगता है कि हालिया विधानसभा चुनावों में भी वह कर्ज माफी के वादे पर ऐसा करने में सफल रहे। मध्य प्रदेश और राजस्थान में कांग्र्रेस को किस्मत से मिली मामूली जीत के पीछे वास्तविक रूप से कई और कारण थे। वास्तव में कांग्र्रेस ने चुनाव अभियान को जिस पड़ाव पर खत्म किया उसकी तुलना में उसकी शुरुआत अपेक्षाकृत बेहतर की थी। जीत के बाद सच्चाई ने विमर्श की दिशा ही बदल दी। कर्नाटक की सरकार को भी सत्ता में काफी समय हो गया है, लेकिन उसने अभी तक किसानों का तकरीबन 3,000 करोड़ रुपये का ही कर्ज माफ किया है जो वादे से बहुत कम है। मध्य प्रदेश में बनी कांग्र्रेस सरकार किसी तरह 5,000 करोड़ रुपये के कर्ज को बट्टे खाते में डाल पाई है। यह कवायद भी उसने भारी दबाव के बाद की और यह भी वादे की तुलना में अति न्यून है। ऐसे में कोई हैरानी नहीं कि महज छह महीनों के बाद ही मध्य प्रदेश में राज्य सरकार के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर मजबूत हो रही है।

यदि राहुल गांधी गुणा-भाग नहीं कर सकते, लेकिन अन्य लोग तो कर ही सकते हैं। अगर उनके खयाली पुलाव को पकाने की जहमत की जाए तो हमारा राजकोषीय घाटा जीडीपी के 3.14 प्रतिशत से बढ़कर 6-7 प्रतिशत के स्तर तक पहुंच सकता है। इसके चलते शहरी और ग्र्रामीण गरीबों को दी जा रही सभी किस्म की सब्सिडी में या तो कटौती करनी होगी या उन्हें बंद करना पड़ेगा। इसके खतरनाक परिणामों की फेहरिश्त खासी लंबी होगी। इसका सबसे विध्वंसक परिणाम होगा महंगाई में होने वाला भारी इजाफा। जितनी रकम का वादा किया जा रहा है, ऊंची मुद्रास्फीति के चलते उसकी कुछ हैसियत ही नहीं रह जाएगी। गैर-जिम्मेदार सरकारें ही महंगाई को न्योता देती हैं। मोदी सरकार की बड़ी उपलब्धियों में से एक यही है कि उसने सफलतापूर्वक महंगाई पर अंकुश लगाया, विशेषकर रोजमर्रा इस्तेमाल होने वाली वस्तुओं की कीमतें काबू में रहीं।

20 मार्च को ब्लूमबर्ग द्वारा प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार एक वक्त एशिया में सबसे खराब प्रदर्शन करने वाली मुद्रा रुपया अब एशिया में सबसे बेहतरीन प्रदर्शन करने वाली मुद्रा के रूप में उभरा है। उम्मीद है कि जून तक डॉलर के मुकाबले रुपया 67 के स्तर तक पहुंच जाएगा। आगामी चुनाव में नरेंद्र मोदी की जीत की उम्मीद में विदेशी निवेशक हाल में पांच अरब डॉलर भारतीय बाजार में लगा चुके हैं। अगर कोई कमजोर और गैर-जिम्मेदार सरकार सत्ता में आई तो फिर यह सब संभव नहीं होगा।

भारतीय मतदाता कभी भी नासमझ नहीं रहे हैं। वे अपने अनुभव के आधार पर ही अपना मन बनाते हैं और शेखचिल्लियों को बखूबी भांप लेते हैं। वे जानते हैं कि बीते पांच साल में उन्हें क्या-कुछ हासिल हुआ है। उन्हें एक ऐसा प्रतिबद्ध एवं कर्मठ प्रधानमंत्री मिला है जिसे भ्रष्टाचार के छींटे छू तक नहीं पाए हैं। उनके नेतृत्व में बढ़ी अर्थव्यवस्था से जीवन की गुणवत्ता में सुधार हुआ है और सभी में सुरक्षा भाव बढ़ा है। यह एक ऐसी सरकार है जिसने जरूरतमंदों तक आर्थिक वृद्धि का पहली बार फायदा पहुंचाया जिसमें गरीबों को जीवन एवं स्वास्थ्य बीमा की सुविधा मिली। बुनियादी ढांचे के मोर्चे पर अप्रत्याशित विकास हुआ। सरकारी उपलब्धियों की यह बहुत छोटी सी सूची है। मतदाता नए भारत का एक विश्वसनीय क्षितिज चाहते हैं, न कि खयाली पुलाव का झूठा पुलिंदा।

( लेखक पूर्व केंद्रीय मंत्री एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं )