विक्रम सिंह। भारत में पर्व-त्योहार उल्लास और उमंग का अवसर होते हैं। देश के विभिन्न हिस्सों में उनका आयोजन भी बड़ी श्रद्धा एवं शांतिपूर्वक तरीके से होता है, परंतु यह साल एक अपवाद के रूप में देखा जाएगा। ज्यादा दिन नहीं बीते जब परशुराम जन्मोत्सव और ईद के दिन जोधपुर में हुए सांप्रदायिक टकराव के कारण शहर में कफ्यरू लगाना पड़ा। इससे पहले राजस्थान के ही करौली में हिंदू नववर्ष पर भयंकर हिंसा भड़की थी। यदि राज्य सरकार ने करौली की घटना से सबक लिया होता तो शायद जोधपुर जलने से बच जाता। वैसे ¨हसा के ये मामले केवल राजस्थान तक ही सीमित नहीं रहे। मध्य प्रदेश के खरगोन से लेकर दिल्ली के जहांगीरपुरी सहित देश के कई इलाकों में रामनवमी और हनुमान जन्मोत्सव पर जिस प्रकार सांप्रदायिक उन्माद और हिंसा की घटनाएं हुईं, उससे ऐसा प्रतीत होता है कि कानून व्यवस्था को तार-तार करने के लिए कोई गहरा षड्यंत्र रचा गया और उसके बारे में स्थानीय प्रशासन अनभिज्ञ रहा। दंगाइयों ने पत्थर, तलवारें, पेट्रोल बम आदि का भंडारण पहले से कर रखा था। उन्होंने शोभायात्रओं पर हमले किए और हिंसा फैलाई। खरगोन में तो कई हिंदू परिवार पलायन करने को विवश हो गए।

कहा जा रहा है कि इस ¨हसा के पीछे एक टूलकिट थी, जिसमें धन इकट्ठा करने, हिंसा भड़काने, बम बनाने और आगजनी करने के तौर-तरीके थे। इसके लिए कई संगठनों पर आरोप भी लगे। सवाल है कि इन सब गतिविधियों से स्थानीय पुलिस-प्रशासन अनजान कैसे बना रहा? इन सभी स्थानों पर एक भी निरोधात्मक गिरफ्तारी नहीं की गई। निरोधात्मक कार्रवाई भी लगभग शून्य ही रही। ऐसे परिवेश में दंगाइयों का मनोबल ऊंचा होना स्वाभाविक था। शोभायात्रओं के मार्ग में पड़ने वाले क्षेत्रों का निरीक्षण, आपत्तिजनक वस्तुओं के भंडारण को रोकने के लिए छतों पर सशस्त्र जवानों की नियुक्ति और शोभायात्र के आगे, मध्य में और पीछे समुचित पुलिस बल की तैनाती एक सामान्य प्रक्रिया है। पता नहीं इस प्रक्रिया का पालन क्यों नहीं किया गया?

करौली, खरगोन, जहांगीरपुरी, जोधपुर आदि की घटनाओं के बीच उत्तर प्रदेश इकलौता उदाहरण रहा, जहां चुनौतीपूर्ण स्थितियों के बावजूद शांति बनी रही। इसका प्रमुख कारण अपराधियों पर कड़ा शिकंजा रहा। बाहुबलियों, अपराधियों, सांप्रदायिक गुंडों को शासन-प्रशासन की तरफ से ऐसा संदेश दिया गया कि पेशेवर अपराधियों ने बाहर आने का दुस्साहस नहीं किया। यह वह उदाहरण है, जो पूरे देश के लिए अनुकरणीय है। यदि ऐसी प्रशासनिक कठोरता सभी राज्यों ने की होती तो वैसी सांप्रदायिक हिंसा कदापि न होती, जैसी देखने को मिली। वास्तव में अपराधियों के प्रति उदार रवैया, व्यवस्था में असमंजस, कठोर निर्णय लेने में हिचकिचाहट के चलते देश में कई स्थानों पर हिंसक घटनाएं हुईं। शासन-प्रशासन और विशेषकर पुलिस विभाग का यह उत्तरदायित्व है कि वह विधि-व्यवस्था को भलीभांति सुनिश्चित कराए। इसमें राजनीतिक हस्तक्षेप अस्वीकार्य है। जहां भी अनुचित राजनीतिक हस्तक्षेप हुआ, वहां कानून-व्यवस्था ढुलमुल रही। परिणामस्वरूप अपराधियों का वर्चस्व रहा, गिरफ्तारियां समय से नहीं हुईं, न्यायालय में अपराधी दोषमुक्त हुए और कालांतर में उनका मनोबल तो ऊंचा हुआ ही, आपराधिक घटनाएं करने में वे और निर्भीक हो गए। उत्तर प्रदेश में बुलडोजर का बहुत सफल प्रयोग हुआ है। इसी तर्ज पर मध्य प्रदेश में भी यह प्रयास हुआ। वहां विलंब से रासुका का भी प्रयोग किया गया। फिर दिल्ली में भी ऐसा किया गया। अपेक्षा की जाती है कि सभी वैधानिक प्रक्रियाओं के समान बुलडोजर का भी प्रयोग विधिसम्मत तरीके से किया गया होगा।

अतिक्रमण किसी महामारी से कम नहीं है। संगठित अपराध के सभी आयाम इसमें समाहित हैं। सरकारी कर्मचारियों का भ्रष्टाचार, संबंधित विभागों की उपेक्षा एवं संलिप्तता, स्थानीय प्रशासन की अकर्मण्यता ने इसे विकराल रूप दे दिया है। दुर्भाग्य से अधिकांश दलों ने अतिक्रमण को एक राजनीतिक अवसर के रूप में देखा है। जब कभी प्रभावी प्रशासनिक कार्रवाई होती है तो वे अपने स्वार्थ की सिद्धि के लिए पुलिस प्रशासन एवं शासन की आलोचना करते हैं। वे घिसा-पिटा तर्क देते हैं कि गरीबों, बेरोजगारों, वंचितों पर निर्मम अवैधानिक कार्रवाई की जा रही है, जबकि सच यह है कि कुछ राजनीतिक तत्व अपने वोटबैंक को बढ़ाने के लिए अवांछनीय समूहों को अतिक्रमण के जरिये बसाते हैं और फिर उनका दुरुपयोग करते हैं।

किसी भी तरह की हिंसक घटनाओं की विवेचना प्राथमिकता के आधार पर की जानी चाहिए। संबंधित मुकदमों की सुनवाई फास्ट ट्रैक अदालतों में होनी चाहिए, जिससे दोषियों को दंड शीघ्र मिले और दूसरों के लिए एक दृष्टांत प्रस्तुत हो। दुर्भाग्य से विवेचना में साक्ष्य संकलन में बहुत कमियां रहती हैं। न्यायालय में वाद वर्षो चलते हैं। परिणामस्वरूप अधिकांश आरोपी दोषमुक्त हो जाते हैं। अब समय आ गया है कि ऐसे मामलों में एक योजना के तहत विवेचना, अभियोजन आदि के कार्य को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जाए, क्योंकि अब यह एक अनिवार्यता हो गई है।

समय-समय पर पुलिस की निष्पक्षता पर भी प्रश्न उठता है। प्रकाश सिंह बनाम भारत सरकार के संबंध में सर्वोच्च न्यायालय ने 2006 में ही स्पष्ट निर्देश दिए थे और सात बिंदुओं पर कार्रवाई की अपेक्षा की थी। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि 2006 के इस निर्णय पर अभी तक नगण्य कार्रवाई ही रही है। कोई भी राज्य सरकार एवं राजनीतिक दल पुलिस सुधार के प्रति गंभीर नहीं दिखाई पड़ रहा है। लगता है पुलिस की दयनीय दशा ही उन्हें अपने लिए लाभकारी दिखाई पड़ रही है। जैसे अन्य प्रकरणों में सर्वोच्च न्यायालय ने कठोर रुख अपनाते हुए अपने दिशानिर्देशों का अनुपालन कराया, वैसे ही देश जनहित के इस निर्णय का अनुपालन सुनिश्चित होने की बड़ी व्याकुलता से प्रतीक्षा कर रहा है। एक सक्षम कानून-व्यवस्था, दक्ष एवं पेशेवर पुलिस और त्वरित न्याय प्रणाली आज एक अनिवार्यता है। जैसी आदर्श पुलिस व्यवस्था यूपी में स्थापित हो रही है, उसके अनुरूप सभी राज्यों को अपनी पुलिस व्यवस्था सुनिश्चित करनी चाहिए, ताकि कानून व्यवस्था और सामाजिक सद्भाव को चुनौती देने वाली घटनाएं न होने पाएं और यदि हों तो समय से उन पर नियंत्रण पाया जाए और आपराधिक तत्व भयाक्रांत बने रहें।

(लेखक उत्तर प्रदेश के पूर्व डीजीपी हैं)