लखनऊ, सद्गुरु शरण। Story Vikas Dubey News कानून के नजरिये से भी, आठ पुलिसकर्मियों की हत्या करने के बाद विकास दुबे को मौत की ही सजा मिलती, पर उसे कानून पर भरोसा होता तो वह जरायम की अंधेरी राह पर चलता ही क्यों? यकीनन वह कानून नहीं मानता था। इसीलिए जब पुलिस दल उसे गिरफ्तार करने उसके गांव पहुंचा तो उसने जाल बिछाकर आठ वर्दीधारियों को मार डाला। वह अंधेरे का लाभ उठाकर भाग गया और कई दिन भागता रहा। कानून के रक्षक भी उसके पीछे भाग रहे थे। विकास दुबे को शायद पहली बार कानून के हाथों की लंबाई का अहसास हो रहा था।

विकास दुबे मर गया, पर जिंदा हैं सवाल: इसलिए सात-आठ दिन भागकर उसे अंतत: महाकाल की याद आई, जहां हर साल सावन में वह जाता था। वह मंदिर परिसर तक पहुंच भी गया, पर भगवान के दरबार में उसे प्रवेश नहीं मिला। वह वहीं दबोच लिया गया और 24 घंटे के भीतर पुलिस की गोलियों से अपनी गति को प्राप्त कर लिया। ऐसा अभागा भला कौन होगा जिसके माता-पिता उसके शव का अंतिम संस्कार करने से मना कर दें और उसकी मौत पर संतुष्टि जाहिर करें। खैर, विकास दुबे मर गया, पर वे सारे सवाल जिंदा हैं जिनके जवाब से पता चल सकता है कि वह इंसान से दरिंदा कैसे बन गया। कुछ हमदर्दों के नाम वह खुद बता गया, पर तमाम चेहरों से पर्दा हटना बाकी है।

पुलिस, कानून और अदालत से भला क्यों डरेगा?: विकास दुबे ने 20 वर्ष पहले थाने में घुसकर भाजपा नेता संतोष शुक्ला की हत्या कर दी थी। हत्या करके वह पांच महीने फरार रहा। फिर अपनी सुविधानुसार आत्मसमर्पण किया और कुछ साल बाद उस मामले में बरी हो गया। सबके सामने बड़ा सवाल है। यदि कोई अपराधी थाने में कानून के रक्षकों की आंखों के सामने हत्या करके बच जाएगा तो फिर वह पुलिस, कानून और अदालत से भला क्यों डरेगा? इस सवाल का जवाब कौन देगा कि इस अपराधी को बरी करवाने के लिए कानून की आंखों में धूल झोंकने वाले कौन लोग थे? जिस अपराधी के लिए किसी भी समस्या से निपटने का सबसे आसान तरीका किसी की हत्या कर देना था, उसके सामने कानून के सारे अस्त्र-शस्त्र कुंठित क्यों हो गए? पुलिस-प्रशासन ने किस संकोचवश उसके ऊपर कभी भी गैंगस्टर और रासुका जैसे कानून इस्तेमाल नहीं किए?

बड़े नेताओं के साथ अपने घनिष्ठ संबंध: कई वीडियो वायरल हैं जिनमें वह यूपी में सत्तारूढ़ रह चुके बड़े नेताओं के साथ अपने घनिष्ठ संबंधों की बात कर रहा है। उसके साथ गलबहियां डाले नेताओं की तस्वीरें भी वायरल हैं। इन नेताओं को सामने आकर स्थिति स्पष्ट करनी चाहिए कि इतने बड़े अपराधी के साथ उनके इतने अंतरंग रिश्ते कैसे बन गए? क्या उन्हें सचमुच यह जानकारी नहीं थी कि इस अपराधी ने थाने के भीतर हत्या की थी। विकास दुबे पहला अपराधी नहीं, जिसे प्रदेश की पुलिस और राजनीति का संरक्षण मिला। इन्हीं छतरियों की छांव में पलकर कई अपराधी अब तक विधायी सदनों को शर्मिंदा कर रहे हैं, इसलिए एक सवाल जनता के सामने भी, कि उसके वोट किसी माफिया के पक्ष में कैसे पड़ जाते हैं? विकास उस दर्जे का दुर्दांत अपराधी था कि एनकाउंटर में उसकी मौत पर सवाल उठाने वालों को निराशा ही हाथ लगेगी, पर उठने वाले सवालों को नजरअंदाज करना आसान नहीं होगा। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने ऐसे ही सवालों के जवाब तलाशने के लिए स्पेशल इंवेस्टिगेशन टीम गठित की है जो 31 जुलाई तक अपनी रिपोर्ट देगी। उम्मीद की जानी चाहिए कि यह टीम कुछ ऐसी संस्तुतियां जरूर करेगी जिन पर अमल करके भविष्य में कोई नया विकास दुबे तैयार नहीं हो पाएगा।

पुलिस के सिस्टम की भी पोल खुली : देश में दो दशक पूर्व तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने अपराधी श्रीप्रकाश शुक्ल का खात्मा करने के लिए एसटीएफ का गठन किया था। उस वक्त एसटीएफ मुख्यमंत्री की अपेक्षा पर खरी साबित हुई और सरकार का सरदर्द बने श्रीप्रकाश शुक्ल का खात्मा किया। इसके बाद इस फोर्स ने कई बड़ी उपलब्धियां अपने खाते में दर्ज करवाईं। विकास दुबे का खात्मा उसकी ताजा उपलब्धि है। यद्यपि पिछले दस-बारह दिन के घटनाक्रम ने एसटीएफ समेत पूरी पुलिस की कार्यप्रणाली पर भी सवाल खड़े किए। विकास दुबे का पीछा करते हुए पुलिसबल कार्यशैली में पेशेवर तौर-तरीकों का अभाव दिखा।

महाकाल मंदिर परिसर में एक साधारण कर्मचारी ने विकास दुबे के फोन नंबर के आधार पर उसका फर्जीवाड़ा पकड़ लिया, पर इस मामले में पुलिस का सर्विलांस सिस्टम और नेटवर्क कारगर साबित नहीं हुआ। विकास दुबे अपनी निजी आइडी वाला सिम इस्तेमाल कर रहा था, इसके बावजूद उसकी सही लोकेशन नहीं पकड़ी जा सकी। पुलिस अधिकारी वर्दी, गन और अधिकारों से लैस होते हैं। इनके बूते वे किसी को भी निपटा देते हैं, पर अब दुनिया बदल रही है। पुलिस को टेक्नोलॉजी की बारीकियां सीखनी होंगी और उनका इस्तेमाल भी। एसटीएफ पेशेवर होती तो विकास दुबे उसे चकमा देकर सैकड़ों मील दूर उज्जैन न पहुंच पाता।

[स्थानीय संपादक, लखनऊ]