राजीव सचान। बीते दिनों कश्मीर में आतंकियों ने एक और कश्मीरी हिंदू राहुल भट्ट की उनके कार्यालय में घुसकर हत्या कर दी। इसी के साथ कश्मीरी हिंदुओं के कश्मीर लौटने की संभावनाएं तो स्याह हुई हीं, यह भी खतरा पैदा हो गया कि वहां जो बचे-खुचे कश्मीरी हिंदू हैं वे सही-सलामत रह पाएंगे। राहुल भट्ट की हत्या पर किसी सेक्युलर-लिबरल के चेहरे पर शिकन तक देखने को नहीं मिली। कश्मीर के नेताओं ने रस्मी तौर पर चिंता जताई। कुछ ने तो राहुल की हत्या के लिए कश्मीर फाइल्स नामक उस फिल्म को दोष दिया, जो कश्मीर में रिलीज ही नहीं हुई, क्योंकि वहां सिनेमाघर ही नहीं। कोई कुछ भी दावा करे, कश्मीर से भगाए गए कश्मीरी हिंदुओं की वापसी तब तक संभव नहीं, जब तक कुछ वैसे कदम नहीं उठाए जाते, जैसे इजरायल ने अपने लोगों को अपनी भूमि में बसाने के लिए उठाए हैं।

जैसे कश्मीरी हिंदुओं के घाटी जाकर बसने के आसार नहीं, वैसे ही बंगाल में वे कई लोग अपने घरों को लौटने की उम्मीद खो चुके हैं, जिन्हें पिछले विधानसभा चुनाव के बाद हुई ¨हसा में तृणमूल कांग्रेस के समर्थकों ने मार भगाया था। ये वे लोग हैं जो घोषित या फिर अघोषित तौर पर भाजपा, कांग्रेस या माकपा के वोटर थे। पिछले साल 2 मई को जैसे ही यह स्पष्ट हुआ कि ममता बनर्जी फिर से सत्ता में आने जा रही हैं, वैसे ही तृणमूल कांग्रेस के समर्थक विरोधी दलों के नेताओं, कार्यकर्ताओं और समर्थकों पर टूट पड़े। उनके घरों-दुकानों पर हमले किए गए। उनकी महिलाओं से छेड़छाड़ और दुष्कर्म हुआ। उनकी संपत्ति लूटी या फिर जलाई। ये घटनाएं कई दिनों तक जारी रहीं, क्योंकि पुलिस ने मूकदर्शक बने रहना और हिंसक तत्वों के खिलाफ कुछ न करना ही बेहतर समझा। इस समझ के पीछे ममता का बार-बार यह कहना था कि कहीं कोई हिंसा नहीं हो रही है और तोड़फोड़, आगजनी की घटनाओं का जिक्र केवल उन्हें बदनाम करने के लिए किया जा रहा है।

नतीजा यह हुआ कि बंगाल पुलिस और निष्क्रिय हो गई और हिंसक तत्वों का दुस्साहस चरम पर पहुंच गया। उन्होंने बाकायदा पर्चे बांटकर उन सबके सामाजिक बहिष्कार का अभियान छेड़ दिया, जिनके बारे में तनिक भी यह संदेह था कि उन्होंने तृणमूल कांग्रेस को वोट नहीं दिया। हर तरफ और यहां तक कि केंद्र सरकार से भी हताश-निराश और डरे-सहमे लोगों ने जान बचाने और तृणमूल कांग्रेस के आतंक से बचने के लिए बंगाल छोड़ना ही बेहतर समझा। जब ऐसे लोग असम पहुंचे और उनके बारे में वहां के अखबारों ने लिखा, तब देश को पता चला कि बंगाल में ‘खेला होबे’ के नाम पर क्या गुल खिलाया गया है? राजनीतिक हिंसा के भय से इन लोगों का पलायन बंगाल ही नहीं, भारत के माथे पर भी एक कलंक था, लेकिन किसी को और यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट को भी कोई फर्क नहीं पड़ा।

आतंकियों, जालसाजों, दंगाइयों के मामलों को तत्परता से सुनने वाले सुप्रीम कोर्ट ने बंगाल में चुनाव बाद की भीषण हिंसा का स्वत: संज्ञान लेने की जरूरत नहीं समझी। जब इस बारे में याचिकाएं दायर हुईं तो भी उन्हें सुनने की कोई तत्परता नहीं दिखाई गई। गनीमत यह रही कि कलकत्ता उच्च न्यायालय ने इस ¨हसा का संज्ञान लिया। उसने हिंसा, हत्या, दुष्कर्म, लूटपाट, आगजनी की जांच का काम राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को सौंपा। इस आयोग ने अपनी जांच में कहा कि बंगाल में कानून का राज नहीं, शासकों का कानून चल रहा है। बंगाल सरकार के तमाम विरोध के बाद भी कलकत्ता उच्च न्यायालय ने चुनाव बाद ¨हसा की जांच सीबीआइ को सौंपी और एक विशेष जांच दल का गठन भी किया। सीबीआइ ने चुनाव बाद ¨हसा में लिप्त कई लोगों को गिरफ्तार किया, लेकिन यदि आप यह उम्मीद कर रहे हैं कि इसके बाद हालात सामान्य हो गए होंगे, हिंसक तत्वों के दुस्साहस का दमन हो गया होगा, ममता सरकार को लज्जा आई होगी और पलायन करने वाले लौट आए होंगे, तो यह जान लें कि ऐसा नहीं हुआ। चुनाव बाद ¨हसा में जो लोग गिरफ्तार किए गए, उनमें से कई जमानत पाकर बाहर आ गए। उनकी धमक और उनका आतंक कायम है। उनके भय से कई पीड़ित परिवार एक साल बीत जाने के बाद भी अपने घरों को लौटने की हिम्मत नहीं जुटा पाए हैं। जो चंद लोग माफी मांगकर और भाजपा या फिर माकपा को वोट देने को अपनी ‘भूल’ मानकर लौटे, उन्हें सरकारी योजनाओं से वंचित रखा गया। कुछ को दूसरे मोहल्लों में रहना पड़ रहा है तो कुछ को बार-बार अपना मकान बदलना पड़ रहा है।

एक अंग्रेजी दैनिक के अनुसार केपीसी मेडिकल कालेज, जादवपुर के एक कमर्चारी को बीते एक साल में 12 बार घर बदलना पड़ा है। इसी दैनिक के अनुसार जादवपुर के 35 परिवार ऐसे हैं, जो पलायन के बाद अभी तक अपने घरों को नहीं लौट सके हैं। कुछ ने सदैव के लिए बंगाल छोड़ देना बेहतर समझा है। कुछ अपने दल के नेताओं के सहयोग से लौटे हैं, लेकिन डर के साये में रह रहे हैं। क्या इससे भले म्यांमार से मार भगाए गए रोहिंग्या नहीं, जिनके बारे में कम से कम दुनिया बात तो करती है? खुद भारत में ऐसे कई ‘मानवतावादी’ हैं, जो भारत आ घुसे रोहिंग्या को यहां बनाए रखने की चिंता में दुबले होते रहते हैं, लेकिन वे कभी बंगाल के प्रताड़ित-पीड़ित और पलायन करने वालों के बारे में एक शब्द नहीं कहते, क्यों? क्योंकि बंगाल में सेक्युलर सरकार है। साफ है किसेक्युलरिज्म की आड़ में हर तरह का अत्याचार, अनर्थ और यहां तक कि नियम-कानून एवं संविधान की धज्जियां उड़ाई जा सकती हैं और वह भी डंके की चोट पर।

(लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडिटर हैं)