[ राजीव सचान ]: बीते सप्ताह जब सुप्रीम कोर्ट ने यह कहा कि फालतू की याचिकाओं के कारण उसके समय की बर्बादी होती है और उसे गंभीर मामलों को सुनवाई के लिए समय नहीं मिल पा रहा तो वह कहानी स्मरण हो आई, जिसमें एक साधु एक जुआरी की जुआ खेलने की आदत छुड़ाने के लिए पेड़ को कसकर पकड़ लेता है और यह चिल्लाता है कि पेड़ उसे छोड़ नहीं रहा। जब जुआरी हैरत से यह कहता है कि महाराज, पेड़ ने आपको नहीं पकड़ा, आप पेड़ को पकड़े हुए हैं, तब साधु उससे कहते हैं कि तुम्हारी जुआ खेलने की आदत ने भी तुम्हें नहीं पकड़ा, बल्कि तुमने उसे पकड़ रखा है। अच्छा हो कि सुप्रीम कोर्ट को भी यह समझ आए कि फालतू की याचिकाएं वह खुद ही सुनता है। याचिकाकर्ता उसे अपनी याचिकाएं सुनने के लिए बाध्य नहीं करते। जब दो-चार फालतू की याचिकाएं सुनी जाती हैं, तब फिर ऐसी याचिकाएं दाखिल करने वालों की हिम्मत बढ़ती जाती है और इसके नतीजे में और अधिक फालतू की याचिकाएं दायर होती हैं-न केवल सर्वोच्च न्यायालय में, बल्कि उच्च न्यायालयों में भी। इसका ताजा उदाहरण वह याचिका रही, जिसे अभिनेत्री जूही चावला ने दिल्ली उच्च न्यायालय में दाखिल किया था। उनकी मांग थी कि 5जी के ट्रायल को रोका जाए।

अदालत का समय बर्बाद करने वाली जूही की याचिका पर दिल्ली हाई कोर्ट ने ठोका 20 लाख का जुर्माना

दिल्ली उच्च न्यायालय ने जूही की याचिका को कानून की प्रक्रिया का दुरुपयोग करने के साथ ही अदालत का समय बर्बाद करने वाली भी करार दिया। न्यायाधीश के अनुसार यह याचिका प्रचार पाने के लिए दायर की गई। वास्तव में ऐसा ही लगा, क्योंकि जूही चावला ने अदालत की वीडियो कांफ्रेंसिंग का लिंक अपने सोशल नेटवर्क अकाउंट से साझा किया। इसका लाभ उठाकर किसी ने अदालत को जूही की फिल्मों के गाने सुनाए। इस बेकार की याचिका से नाराज दिल्ली उच्च न्यायालय ने जूही चावला पर 20 लाख रुपये का जुर्माना भी लगाया और यह उम्मीद जताई कि इससे फालतू की याचिकाएं दायर करने वाले हतोत्साहित होंगे। दुर्भाग्य से ऐसा होने के आसार कम ही हैं, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट में दिल्ली उच्च न्यायालय के उस फैसले को चुनौती देते हुए एक याचिका दायर की गई है, जिसमें सेंट्रल विस्टा का काम रोकने की मांग करने वाली याचिका को खारिज कर याचिकाकर्ताओं पर एक लाख रुपये का जुर्माना लगाया गया था।

सेंट्रल विस्टा का काम रोकने की याचिका राजनीति से प्रेरित: दिल्ली उच्च न्यायालय

दिल्ली उच्च न्यायालय ने यह पाया था कि सेंट्रल विस्टा का काम रोकने की याचिका ईमानदार नहीं है और यह राजनीति प्रेरित है। इतना ही नहीं, उसने सेंट्रल विस्टा परियोजना को राष्ट्रीय महत्व की बताया था। इसके बाद भी प्रदीप कुमार नाम के याचिकाकर्ता पर कोई असर नहीं पड़ा और उन्होंने इस दलील के साथ सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया कि कोरोना महामारी के चरम के दौरान सेंट्रल विस्टा परियोजना को आवश्यक गतिविधि के रूप में रखने का दिल्ली उच्च न्यायालय का फैसला उचित नहीं था। पता नहीं इस याचिका पर सुप्रीम कोर्ट का क्या रुख होगा, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि खुद यही कोर्ट बहुत पहले इस परियोजना की वैधानिकता पर मुहर लगा चुका है। इसके बाद भी कुछ लोग दिल्ली उच्च न्यायालय गए और वहां उन्होंने इस तरह की भद्दी दलीलें दी कि कोरोना काल में सेंट्रल विस्टा परियोजना नाजियों के यातना शिविर में तब्दील हो गई है। इस तरह की वाहियात दलीलों से यह साफ हो गया कि याचिकाकर्ता उन विपक्षी दलों से प्रेरित थे, जो सेंट्रल विस्टा परियोजना को हर हाल में रोकने पर अड़े हुए थे।

झूठी दलीलों के जरिये अदालतों को गुमराह करने की कोशिश

इसी मकसद से कुछ लोग सुप्रीम कोर्ट भी पहुंचे थे। उनकी ओर से सेंट्रल विस्टा परियोजना को लेकर मोदी का महल बनाने जैसी बेबुनियाद बातें तब की जा रही थीं, जब अभी प्रधानमंत्री आवास का काम शुरू ही नहीं हुआ। इससे यही पता चलता है कि झूठी दलीलों के जरिये भी अदालतों को गुमराह करने की कोशिश की जाती है। कहना कठिन है कि ऐसा करने वाले हर बार नाकाम ही होते हैं। जो भी हो, सुप्रीम कोर्ट ने फालतू की याचिकाओं के कारण अपना समय बर्बाद होने की टिप्पणी जिस याचिका के मामले में की थी, उसका निपटारा वह मार्च में ही कर चुका था, लेकिन याचिकाकर्ताओं ने किसी पहलू को लेकर एक नया आवेदन दायर कर दिया था। सुप्रीम कोर्ट की मानें तो याचिकाकर्ता एक नगण्य मुद्दे के साथ उसके समक्ष हाजिर हुए थे। इससे यह भी जाहिर होता है कि कुछ फुरसती लोग अदालत-अदालत भी खेलते हैं।

महत्वहीन याचिकाओं के जरिये से सुप्रीम कोर्ट को उसका मूल काम करने से रोका जा रहा

यह किसी से छिपा नहीं कि कुछ लोग याचिकाबाज में तब्दील हो चुके हैं। वे रह-रहकर कोई न कोई याचिका दाखिल करते ही रहते हैं। सुप्रीम कोर्ट की मानें तो महत्वहीन याचिकाओं के जरिये उसे निष्क्रिय बनाया जा रहा है। यदि इसमें तनिक भी सत्यता है तो इसका मतलब है कि सुप्रीम कोर्ट को उसका मूल काम करने से रोका जा रहा है। यदि यह सही है कि महत्वहीन मामलों के कारण सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश गंभीर मामलों पर पर्याप्त समय नहीं दे पाते तो इसका सीधा मतलब है कि फालतू की याचिकाएं सड़क पर अवैध तरीके से काबिज हुए उन किसान नेताओं की तरह हैं, जो आवागमन को प्रभावित कर रहे हैं। फालतू याचिकाओं पर नाराजगी जाहिर करते समय जस्टिस चंद्रचूड ने कहा था, ‘आज सूचीबद्ध मामलों की फाइलें पढ़नी थीं, लेकिन अफसोस की बात है कि उनमें से 90 फीसदी मामले फालतू थे।’ उन्होंने यह भी कहा था कि हमें एक संस्था के रूप में अपना समय फालतू के मामलों से निपटने में नहीं लगाना चाहिए। इससे न्यायालय का समय बर्बाद होता है और ऐसा समझा जाता है कि हमारे पास काफी समय है। उनकी बात से असहमत नहीं हुआ जा सकता, लेकिन जब तक सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट फालतू की याचिकाओं को न सुनने का कोई तंत्र विकसित नहीं करते, तब तक उन्हें ऐसी याचिकाओं से मुक्ति मिलने वाली नहीं है।

( लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं )