[अद्वैता काला]। अयोध्या पर आए निर्णय को न्यायिक नीतिशास्त्र के उच्च प्रतिमान की उपमा दी जा सकती है, मगर वास्तव में यह उससे भी कहीं बढ़कर है। दिसंबर 1992 की घटना के बाद राम जन्मभूमि विवाद में देश की एक पूरी पीढ़ी जवान हो गई। इस दौरान विमर्श की दुनिया में वामपंथियों का दबदबा रहा। उन्होंने आस्था पर सवाल उठाए और समुदायों को एक-दूसरे के खिलाफ भड़काकर अपना हित साधते रहे। लंबे समय से यह आशंका जताई जा रही थी कि इस मुश्किल मुद्दे पर समाधान की दिशा में बढ़ने पर कोई हिंसक प्रतिक्रिया हो सकती है, किंतु अयोध्या पर आए फैसले को विभिन्न पक्षों ने जिस विनम्रता एवं मर्यादा के साथ स्वीकार किया वह हमारे लोकतांत्रिक और संवैधानिक मूल्यों में अगाध आस्था एवं उनकी सफलता को ही दर्शाता है। 

मुस्लिम समुदाय ने सम्मान भाव से निर्णय को किया स्वीकार

अयोध्या फैसले के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में उचित ही कहा कि यह बर्लिन की दीवार गिरने जैसा है। यह उल्लेखनीय है कि भारत में दो समुदायों के बीच लंबे अर्से से बनी यह दीवार उनके कार्यकाल में ही ध्वस्त हुई। भविष्य में इसे उनकी सबसे महान उपलब्धियों में गिना जाएगा। मुस्लिम समुदाय ने जिस सम्मान भाव के साथ इस निर्णय को स्वीकारा उससे उन निहित स्वार्थी तत्वों को गहरा आघात लगा है जो इसे लेकर तमाम तरह की आशंकाओं से उन्हें भयाक्रांत करने में जुटे थे।

साक्ष्यों के आधार पर उच्चतम न्यायालय ने यह सिद्ध किया कि किसी भी दावे का निपटारा विशुद्ध रूप से तथ्यों के आधार पर ही किया जाना चाहिए। इसका निर्धारण कुछ निहित स्वार्थी तत्वों द्वारा थोपी गई सांप्रदायिकता या बहुसंख्यक भावनाओं से नहीं होता। वास्तव में यह भारत की जनता और संविधान की शुचिता के लिए एक बहुत बड़ी जीत है।

हिंदुओं के लिए सबसे पवित्र स्थलों में से एक है अयोध्या

अयोध्या स्थित राम जन्म स्थान सदियों से हिंदुओं के लिए सबसे पवित्र स्थलों में से एक रहा है। अयोध्या में और भी मस्जिदें हैं। यहां हिंदू और मुस्लिम शांति एवं सद्भाव के साथ रहते आए हैं, मगर विवाद केवल एक स्थानराम जन्म स्थान को लेकर ही था। शीर्ष अदालत ने अपने निर्णय में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण यानी एएसआइ द्वारा किए गए उत्खनन का भी संज्ञान लिया।

फैसले के अनुसार एएसआइ के उत्खनन से मिले साक्ष्यों से स्थापित होता है कि विवादित ढांचे के नीचे हिंदू मंदिर से जुड़े तमाम प्रतीक चिन्ह प्राप्त हुए। वामपंथी इतिहासकारों और मीडिया के एक बड़े हिस्से ने उत्खनन के इन निष्कर्षों को खारिज करने का प्रयास किया। एक वरिष्ठ पत्रकार ने इससे जुड़ा एक वाकया याद किया। उन्होंने वर्ष 2003 में इन साक्ष्यों पर आधारित एक आलेख लिखा था। इसके छपने के बाद उनकी लानत-मलानत के लिए एक मुहिम चलाई गई। यह स्थिति तब थी जब आलेख में उन्होंने सिर्फ तथ्यों का उल्लेख किया था। उसमें उनकी अपनी कोई टिप्पणी या विचार नहीं थे।

एएसआइ के अधिकारी पर अनावश्यक बनाया गया दबाव

आप समझ सकते हैं कि विमर्श की धारा को किस किस्म के लोगों ने बंधक बनाया हुआ था। उत्खनन के निष्कर्षों को उन्होंने सार्वजनिक दायरे में नहीं आने दिया और उसकी रिपोर्टिंग करने वाले पत्रकारों को निशाना बनाया। इतना ही नहीं उत्खनन प्रक्रिया से जुड़े एएसआइ के केके मुहम्मद जैसे अधिकारी पर अनावश्यक दबाव डाला गया। उनकी प्रतिष्ठा तार-तार करने के प्रयास हुए और उन्हें धमकियां भी दी गईं। इसके पीछे आखिर क्या मंशा थी? इसके पीछे इसी बात का डर था कि किसी भी मजहब का कोई भी समझदार व्यक्ति उत्खनन से मिले साक्ष्यों से यही समझेगा कि बाबर द्वारा हिंदुओं के अधिकारों का दमन करके एक ढांचे को खड़ा कराया गया। यह केवल हिंदुओं का उत्पीड़न ही नहीं, बल्कि गैर-इस्लामिक दुष्कृत्य भी था, क्योंकि मस्जिद खाली जमीन पर नहीं, अपितु जबरन कब्जा करके बनाई गई।

जन्म स्थान से कोई समझौता नहीं 

अयोध्या में उत्खनन से मिले साक्ष्य वैज्ञानिक भी थे और पुष्ट होने के साथ ही सभी तरह के संदेह का निवारण करने वाले भी, फिर भी उन्हें महत्व देने और समाधान तक पहुंचने से बचा गया। सभी पंथों के अनुयायी यह तो समझेंगे ही कि जन्म स्थान से कोई समझौता नहीं किया जा सकता। जब मक्का और बेथलहम में ऐसा नहीं हो सकता तो अयोध्या में कैसे हो सकता है? इसके बाद भी समाधान में बाधाएं खड़ी की गईं। इसके चलते दोनों समुदाय नकारात्मकता के बंधक में बंध गए।

यह विवाद लंबा खिंचा। अयोध्या फैसले के पहले सभी ने सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को स्वीकार करने की बात कही। फैसले वाले दिन मैंने सारा दिन एक टीवी चैनल पर एक मौलाना साहब और पंडित जी के साथ बहस में व्यतीत किया जिनके साथ पहले भी अयोध्या मसले और अन्य मुद्दों पर जोरदार बहस कर चुकी हूं।

फैसले के पहले और बाद में दोनों समुदायों में दिखा सद्भाव

उस दिन उनके बीच फैसले के पहले भी और बाद में भी सद्भाव दिखा। उन्हें इस तरह देखना सुखद भी था और राहतकारी भी। खास बात यह थी कि दोनों एक-दूसरे को सुन रहे थे। दिन भर की बहस के बाद जब मैंने मौलाना साहब से पूछा आप कब निकल रहे हैं तो उन्होंने पंडित जी से मुखातिब होते हुए यही सवाल उनसे भी किया। यह अद्भुत क्षण था। क्या यह एक नई शुरुआत थी?

अयोध्या फैसला 490 साल पुराने विवाद का शांतिपूर्ण समाधान करने वाला रहा। उच्चतम न्यायालय ने 1992 में विवादित ढांचे के ध्वंस को माना और सुन्नी वक्फ बोर्ड को पांच एकड़ जमीन देने को कहा, जिसने फैसले को चुनौती न देने की बात कही। हिंदू पक्ष ने हिंदुओं के लिए पावन समझे जाने वाले जन्म स्थान को हासिल किया। उनका विश्वास है कि यहीं पर जन्में राम ठुमकठुमक चले और फिर अयोध्या नरेश बने।

सेक्युलरिज्म की परिभाषा को होगा समझना

अयोध्या जाने वाले लोग राम लला को वनवास जैसी स्थिति में देखकर दुखी होते थे। इसका कारण यही था कि निष्पक्ष और वैज्ञानिक तरीके से खोजे गए सत्य की अनदेखी की गई और उसे दबाया गया। इस मौके पर हमें सेक्युलरिज्म की उस परिभाषा को भी देखना-समझना होगा जिसके तहत संकीर्ण स्वार्थों के चलते एक जायज मांग को सांप्रदायिक कहा गया और वह भी इसलिए कि उसे हिंदुओं ने उठाया। इस रवैये ने लोगों में नकारात्मकता और विभाजनकारी भावना फैलाई।

अब जब देश की सबसे बड़ी अदालत ने साक्ष्यों का परीक्षण कर यह पाया कि अयोध्या की जमीन पर हिंदुओं का दावा वैध था तब फिर समझदारी इसी में है कि इस मसले को तथ्यों की निगाह से देखा जाए, न कि हिंदू विरोधी वामपंथियों की नजर से। हिंदू द्वेषी होना सेक्युलरिज्म नहीं है। वास्तव में यह एक समुदाय के नाम पर दूसरे समुदाय की भावनाओं की खतरनाक अनदेखी है। अब समय इसी बात का है कि आम भारतीय सामंजस्य की भावना को बल दें।

(स्तंभकार पटकथा लेखिका एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं)