उत्तर प्रदेश, आशुतोष शुक्ल। Spitting In Public Places: कोरोना के साये में बीत रही जिंदगी में यूं तो पिछले हफ्ते भी बहुत कुछ घटा लेकिन, जिस छोटी सी घटना ने सबका ध्यान खींचा वह थी मेरठ में सड़क पर थूकने का विरोध। थूकने वाले और उनका विरोध करने वाले सभी धर्मों और सभी वर्गों के लोग थे।

सार्वजनिक स्थलों पर थूकने को लोग अब गलत मान रहे : आशय यह कि कोरोना का एक सकारात्मक परिणाम यह हो रहा है कि सार्वजनिक स्थलों पर थूकने को लोग अब गलत मान रहे हैं। यह घटना मेरठ के एक सरकारी अस्पताल के पास हुई और विरोध इतना बढ़ा कि पुलिस को लाठियां बजानी पड़ीं। डॉक्टरों के समर्थन में आम लोग भी आ गए तो उनका उत्साह बढ़ गया।

 

थूकने की बुरी आदत से मुक्ति का मार्ग बच्चे दिखाएंगे : ऐसी प्रेरक बातें और जगहों से भी सुनने को आ रही हैं। सामान्य शिष्टाचार सिखाया पढ़ाया तो बहुत दिनों से जा रहा था लेकिन चूंकि अब जनता जागी है तो लगने लगा है कि जहां तहां थूकने की इस पुरानी बीमारी से देश को राहत मिल सकेगी। जिस तरह बच्चों ने अपने मां बाप को कूड़ा कूड़ेदान में डालने के लिए बाध्य किया, लगता है वैसे ही थूकने की बुरी आदत से मुक्ति का मार्ग भी बच्चे ही दिखाएंगे। उनकी ऑनलाइन कक्षाओं में इसकी चर्चा अब होने लगी है। इस बीच लखनऊ की एक घटना ने पूरे प्रदेश को हिला दिया। यहां के किंग जॉर्ज चिकित्सा विश्वविद्यालय के ट्रामा सेंटर में एक ऐसा मरीज मिला जिसे कोरोना होने के बाद भी एक बड़े डॉक्टर के दबाव में सामान्य वार्ड में भर्ती करा दिया गया था।

हजारों लोगों का जीवन दांव पर : जूनियर डॉक्टर मना करते रहे गए लेकिन, बड़े डॉक्टर का रुतबा उन पर भारी पड़ गया। बात खुली तो 65 डॉक्टरों और स्वास्थ्यकर्मियों को क्वारंटाइन किया गया। इसके अलावा पांच सौ शिक्षकों और सात सौ रेजीडेंट डॉक्टरों के लिए अलर्ट जारी किया गया। इस समय जबकि एक-एक डॉक्टर की आवश्यकता है, उस समय उनकी और मरीजों की जान से खिलवाड़ सामान्य बात नहीं और इसलिए इसकी सजा भी कड़ी होनी चाहिए। किसी बड़े डॉक्टर का भी इतना साहस कैसे हुआ कि अपने एक पारिवारिक मरीज के लिए वह हजारों लोगों का जीवन दांव पर लगा सके।

सोशल मीडिया पर इस कदम की आलोचना हुई : आगरा, नोएडा, मेरठ और लखनऊ बीते हफ्ते भी सिरदर्द बने रहे। इन शहरों से संक्रमित मरीज निकलने का क्रम जारी रहा और न केवल तब्लीगी, अन्य वर्ग भी लॉकडाउन का उल्लंघन करने की बहादुरी दिखाते रहे। बरेली में एक दिन तो हजारों की भीड़ सब्जी मंडी जा पहुंची। इसी हफ्ते लखनऊ का एक और क्षेत्र भी सील कर दिया गया। पहले कैंट के सदर क्षेत्र को सील किया गया था और फिर उसी से सटे तेलीबाग को। इस बीच एक दिन अचानक खबर आई कि उत्तर प्रदेश सरकार राजस्थान के कोटा में पढ़ने वाले बच्चों को लाने के लिए बसें भेज रही है। सोशल मीडिया पर इस कदम की आलोचना हुई तो अधिकारी दबाव में आए जबकि यह सराहनीय पहल थी और बाद में अन्य राज्यों पर भी उत्तर प्रदेश की तरह अपने बच्चों को कोटा से बुलाने का दबाव पड़ा। यहां तक कि राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने भी ट्वीट करके बच्चों को यूपी भेजने की जानकारी दी।

सोमवार को जब आप यह डायरी पढ़ रहे होंगे, तब लखनऊ को छोड़कर राज्य में कामकाज का सरकारी पहिया घूम चुका होगा। राज्य सरकार के दफ्तर गुलजार होने लगेंगे और सड़कों पर आवाजाही बढ़ जाएगी। सरकारी काम को आरंभ करने के लिए एक फार्मूला तय किया गया है। समूह ‘क’ और समूह ‘ख’ के अधिकारी दफ्तर आएंगे जबकि ‘ग’ और ‘घ’ की उपस्थिति 33 फीसद होगी। उनके लिए रोस्टर लागू होगा। शारीरिक दूरी का पालन सुनिश्चित कराने की जिम्मेदारी जिला प्रशासन पर होगी। पुलिस की सख्ती बढ़ेगी और सड़कों पर निगरानी भी।

सख्ती कितनी भी हो, उत्तर प्रदेश जैसे विपुल आबादी वाले राज्य में थोड़े भी बहुत लगते हैं। कर्मचारी आएंगे तो दफ्तरों के बाहर चाय और खान-पान के ठेले भी लग सकते हैं। रोज कमाने खाने वाला यह वर्ग बहुत पिसा हुआ है और सड़कों पर जरा भी रौनक देखते ही अपनी आजीविका की चिंता उसे विकल करेगी। प्रशासन और पुलिस के सामने अब असल चुनौती आएगी। अभी तक तो सबको एक ही नियम से बांधा गया था लेकिन, जब कुछ को छूट मिलेगी और अधिक को रोका जाएगा तो प्रशासन की परीक्षा तभी होगी। जिला अदालतें भी सोमवार से खुलनी थीं लेकिन, हाईकोर्ट ने यह निर्णय अनिश्चितकाल के लिए रद कर दिया।

[संपादक, उत्तर प्रदेश]