लखनऊ, सद्गुरु शरण। UP Chief Minister Yogi Adityanath: अब लंबे समय तक कोरोना के साथ ही जीना-मरना है तो भला यूपी की सियासत कब तक लॉकडाउन में कैद रहती। वैसे भी प्रदेश में साल के अंत तक पंचायत चुनाव होने हैं, इसलिए विपक्ष को फील्डिंग तो सजानी ही पड़ेगी। योगीजी तो चौके-छक्के जड़ने में माहिर हैं ही। उस पर खाली मैदान मिलेगा तो दौड़-दौड़कर ही इतने रन कर लेंगे कि चेज करना मुश्किल हो जाएगा। इसलिए जब प्रधानमंत्री ने देशवासियों से अपील की कि कोरोना के साथ जीने की आदत डालिए तो सबसे पहले यूपी के विपक्षी दलों ने इसका पालन किया, तुरंत लॉकडाउन तोड़कर। फिलहाल और कुछ तो दिखता नहीं। ले-देकर कोरोना ही है।

श्रमिकों के लिए क्या काम हुआ? : अचानक ही विपक्षी दलों का मन प्रवासी श्रमिकों की हालत पर द्रवित हो उठा। सबसे पहले यह घोषणा की गई कि श्रमिकों की दुर्गति के लिए मोदीजी और योगीजी जिम्मेदार हैं। आरोप लगाने की हड़बड़ी में वे यह भूल गए कि मोदीजी और योगीजी तो कुछ सालों से ही सत्ता में हैं, इससे पहले तो उनकी ही सरकारें थीं। तब इन श्रमिकों के लिए क्या काम हुआ? बहरहाल इसका लिहाज त्यागकर विपक्षी दल मैदान में कूद पड़े। फिर शुरू हुई बसों की राजनीति। बात कांग्रेस से शुरू करें तो इसे उसकी उदारता ही मानी जाएगी कि उसने अपने शासन वाले महाराष्ट्र और राजस्थान के संभवत: सर्वाधिक बदहाल श्रमिकों की चिंता छोड़कर उत्तर प्रदेश की चिंता की। कांग्रेस ने घोषणा की कि उसने यूपी के श्रमिकों को ले जाने के लिए 1000 बसों की व्यवस्था की है।

फर्जीवाड़ा सामने आते ही बाजी पलट गई : योगीजी की सेना एक-दो दिन शांत रही, पर कांग्रेस की आवाज में तेजी बढ़ते देखकर गुब्बारे की हवा निकालने का उपक्रम शुरू हुआ। इसका मौका खुद कांग्रेस ने दे दिया। उसने बसों की जो सूची प्रदेश सरकार को सौंपी, उसमें बसों के अलावा स्कूटर, मोटरसाइकिल, ऑटो रिक्शा और माल ढोने वाले वाहनों के भी नंबर थे। अधिकतर वाहन खटारा। यह फर्जीवाड़ा सामने आते ही बाजी पलट गई। पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष समेत कई पदाधिकारियों के खिलाफ चार सौ बीसी की एफआइआर दर्ज हो गई। बाकी लोग तो इधर-उधर खिसक गए, पर अध्यक्ष जी पुलिस के हाथ लग गए। उन्हें जेल की हवा खानी पड़ रही है। देर-सबेर बाकी भी वहीं पहुंचेंगे। जाहिर है दिल्ली में बैठकर यूपी की राजनीति करने पर ऐसी रणनीतिक चूक होने की आशंका रहती ही है। कांग्रेस की 1000 बसें पता नहीं कहां गईं, पर देश के विभिन्न राज्यों से 100-150 ट्रेनें श्रमिकों को लेकर रोज यूपी आ रही हैं। अगले दस दिनों में ऐसी 2600 ट्रेनें यूपी आने वाली हैं। उम्मीद है कि अगले 10-15 दिन में सभी प्रवासी श्रमिक अपने घर पहुंच जाएंगे जिन्हें उनके हुनर के मुताबिक रोजगार मुहैया कराने के लिए योगी सरकार बड़ी तैयारी कर रही है।

श्रमिक तो बहाना, निशाना कहीं और : यूपी के राजनीतिक दलों में जो बेचैनी दिख रही, उसमें फाउल होने लाजिमी हैं। भले ही यूपी का विधानसभा चुनाव अभी दो साल दूर है, पर मोदी और योगी की सरकारें अपने एजेंडे पर जिस तेजी और आक्रामकता के साथ काम कर रहीं, उससे विपक्षी दलों में हड़बड़ी स्वाभाविक है। यह सब जानते हैं कि महाराष्ट्र और राजस्थान में कितने भी गुल खिला लो, जब तक यूपी में दाल नहीं गलती, कुछ भी अच्छा नहीं लगता। विपक्ष का बिखराव उसकी घबराहट और बढ़ा रहा। पिछले चुनाव में सपा और बसपा जरूर साथ थे, पर उन्होंने कांग्रेस को साथ लेने से मना कर दिया था। चुनाव बाद सपा और बसपा भी अलग हो गए। अब विपक्ष की तीन धाराएं अलग-अलग दिशा में बह रही हैं।

फिलहाल इनका संगम होने के दूर-दूर तक आसार भी नहीं दिखते। सपा ने शायद यह मान लिया है कि ज्यादा हाथ-पैर मारने से कुछ नहीं होगा, इसलिए सब कुछ वक्त पर छोड़ देना चाहिए। फिलहाल नंबर दो की पोजीशन पर कायम रहना महत्वपूर्ण है, ताकि नंबर एक का सिंहासन हिलने पर वह स्वाभाविक दावेदार रहे। कांग्रेस की समस्या वही पुरानी है। पार्टी के पास बड़े नेताओं की भरमार है, पर जमीन पर कार्यकर्ताओं का अकाल। इस वजह से उसके अभियान परवान नहीं चढ़ पाते।

कांग्रेस की मौजूदा सुख-शांति देखकर अनुमान लगाना कठिन है कि उसके प्रदेश अध्यक्ष कई दिनों से जेल में हैं। शायद पार्टी ने अपने हालात के साथ जीना सीख लिया है। हां, मायावती का कूल-कूल मूड जरूर सबको सोचने पर मजबूर कर रहा कि इसका राज क्या है। रोज सुबह मुख्य रूप से कांग्रेस को लक्ष्य करके दो-तीन ट्वीट। फिर अगले दिन तक शांति। ऐसा सिर्फ दो परिस्थितियों में संभव है। या तो किसी पार्टी को यह विश्वास हो जाए कि फिलहाल कुछ हो नहीं सकता या फिर पार्टी ने भविष्य की दृष्टि से कुछ तय कर लिया हो। बसपा में क्या चल रहा, यह मायावती के अलावा शायद ही कोई जानता होगा, इसलिए इस पर ज्यादा माथापच्ची करने से फायदा नहीं।

[स्थानीय संपादक, लखनऊ]